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थोकडा नं. ५
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(सूत्रश्री सूयगडायांगजी श्रु० २ अ०३) -X(@3+
( आहार )
जीवात्मा सचदानन्द निजगुणमुक्ता सदा अनाहारीक हैं यह निश्चय नयका वचन है। और जीवके अनादि काल से कर्मोका संयोग होनासे भिन्न भिन्न योनिमें नया नया जन्म धारण करते हुवे पुगलका आहार करता है यह व्यवहार नयका वचन है । व्यवहार नयसे जीव रागद्वेष की प्रवृति करते हुवे के कर्मबन्ध भी होता है उन्ही कर्मो का फल भवन्तरमे शुभा शुभ आवश्य भोगवना भी पडता है जाति अपेक्षा जीव पांच प्रकार के होते है यथा- एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, यांचेन्द्रिय, जिस्मे एकेन्द्रियका पांच भेद है यथापृथ्वीका काय ते काय वायुकाय वनास्पतिकाय सर्व जीवों वनस्पतिकाय के जीवाधिक होनासे शास्त्रकारोंने प्रथम वनस्पतिकायका ही व्याख्यान करते है.
aaiपतिकाय च्यार प्रकारकी होती है यथा-
(१) गीया - वृक्षके अग्रभागमे बीज होता है.