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... (उ०) अपने किये हुवे पापोंको गुरु सन्मुख घृणा करनेसे प्रथम तो अपनि आत्माको विशूड बनानेके लिये निज दोष प्रगट करनेका स्थान मीला है इन्हींसे अप्रस्थ योगोंका निष्ट करता हुवा प्रशस्थ योगोंको स्वीकार करता है एसे करनेसे जीवोंके ज्ञानावर्णीय दर्शनावर्णीय कर्मोका दल आत्माके ज्ञानदर्शन गुणको रोक रखा है उन्ही कर्मदलको निष्ट करता है इन्हीसे अपूर्व ज्ञानदर्शन गुणकि प्राप्ती होती है।
(८) प्रश्न-सामायिक ( पटावश्यकसे पेहलावश्यक ) करनेसे 'क्या फल होता है ?
(उ०) सा० शत्रु मित्रोंपर समभाव रूप जो सामायिक करते हैं उन्ही जीवोंको सावध-पापकारी योगोंका वैपार नहीं रहता है. अर्थात नवा कर्मोका बन्ध नहीं होता है।
(९) प्रश्न-चौवीस तीर्थंकरोंकि स्तुतिरूप चोविस्थो (दुसरा वश्यक) करनेसे क्या फल होता है ?
(अ) चौवीस तीर्थकरोंकि स्तुति करनेसे दर्शन (सम्यक्त्व) विशुद्ध होता है अर्थात् गुणी जनोंका गुण करनेसे अन्तःकरणा स्वच्छ हो जाता है ।
(१०) प्रश्न-गुरुमहाराजको द्वादशावतन वन्दन (तीसरावश्यक) करनेसे क्या फल होता है ?
(3) गुरु वन्दन करनेसे जीवोंके निचगौत्रका बन्धनहीं होता है अगर पेहला हवा होतो क्षय हो जाता है और उच्च गोत्र यशोकीर्ति शुभ शौभाग्य मुस्वर आदि अच्छे प्रकृतीयोंकि प्राप्ती होती है अर्थात गुरवादिकों वन्दन करनेसे अपनि धुता