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( ११ ) अर्थ--गर्भ जन्म तप ज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्यानकों की परम्परा के साथ जीव विशुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं अर्थात विशुद्ध सम्यक्त होने से ही यह कल्यानक होते हैं।
दट्टण य मणुयत्तं सहिय तहा उत्तमेण गोत्तेण । बडूण य सम्मत्तं अक्खय सुक्खं चमोक्खंच ॥३४॥
दृष्ट्वा च मनुनत्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण ।
लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षय सुखं च मोक्षं च ॥
अर्थ--यह जीव सम्यक्त्व को धारण कर उत्तम गोत्र सहित मनुष्य पर्याय को पाकर अविनाशी सुख वाले मोक्ष को पाता है। .
विहरदि जाव जिणंदो सहसह सुलक्खणेहि संजुत्तो । चउतीस अइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ॥३॥ विहरति यावञ्जिनेन्द्रः सहस्राष्ट लक्षणेः संयुक्तः ।।
चतुस्त्रिंश दतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा मणिता ॥ अर्थ-श्री जिनेन्द्र भगवान् एक हजार आठ लक्षण संयुक्त औ चौंतीस अतिशय सहित जब तक विहार करते हैं तब तक उनको स्थावर प्रतिमा कहते हैं।
भावार्थ-श्री तीर्थकर केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात धर्मोपदेश देते हुवे आर्य क्षेत्र में विहार करते रहते हैं परन्तु वह शरीर में स्थित होते हैं इस कारण शरीर छोड़ने अर्थात् मुक्ति प्राप्त होने तक उनको स्थावर प्रतिमा कहते हैं।
वारस विह तव जुत्ता कम्मं खविऊण विहवलेणस्स । वोसह चत्तदेहा णिव्यासा मणुत्तरं यत्ता ॥३६॥
अर्थ-बारह प्रकार का तप धारण करने वाले मुनि चारित्र के बल से अपने समस्त कर्मों को नाश कर और सर्व प्रकार के शरीर छोड़ कर सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पद को प्राप्त होते हैं।
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