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( ६६ )
तेयाला तिष्णसया रज्जुणं लोय खेत्त परिमाणं ।
मुत्तूण पएसा जच्छ ण टुरुदुल्लिओ जीवो || ३६॥ ॐ त्रिचत्वारिंशत्त्रिशत रज्जूनां लोक क्षेत्र प्रमाणं । मुक्काऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः ॥
अर्थ-तीन से तेतालीसराजु घनाकार लोकाकाश का प्रमाण है जिस के मध्यवर्ती आठ प्रदेशों को छोड़ कर अन्य सर्व प्रदेशों में यह जीव भ्रमा है अर्थात् जन्म और मरण किये हैं ।
एकेकंगुलवाही छण्णवदि हुंति जाण मणुयाणं । अवसेय सरीरे रोया भणि केत्तिया भणिया ||३७|| एकैकाङ्गुलौ व्याधयः षण्णवतिः भवन्ति जानीहि मनुष्यानाम् । अवशेषे च शरीरे रोगा भण कियन्तो भणिताः ॥
अर्थ - मनुष्य के शरीर विषे एक अङ्गुल स्थान में छयानवे ९६ रोग होते हैं तो कहिये समस्त शरीर में कितने रोग हैं ? जब एक अगुल में ९६ रोग हैं तो समस्त मनुष्य शरीर में कितने ऐसा पैरासिक करे और फिर समस्त शरीर की लम्बाई चौड़ाई उंचाई नाप कर पोल (शून्यस्थानों ) को घटाय घनफल निकाले उसको ९६ से गुणा कर जो संख्या आवे तितने रोग इस मनुष्य शरीर में हैं ।
ते रोया वियसयका सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किंवा वहुएहिं लविएहिं ॥३८॥
ते रोगा अपिच सकला सोढा त्वया परवशेन पूर्वभवे । एवं सहसे महाशयः किंवा वहुभिः लपितैः ॥
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अर्थ-वे पूर्वोक्त सर्वही रोग पूर्व भवों में कर्मों के आधीन 'होकर तुमने सहे अव अनुभव (विचार) करो बहुत कहने कर क्या पिनंत मृत्त फेफस कालिज्जय रुहिर खरिस किमिजाळे । उयरे वसिसि चिरं णवदश मासेहिं पत्तेहिं ॥ ३९ ॥ • पित्तान्त्रमूत्र फेफस कालिज रुधिर खरिस ऋमिजाले । उदरे वसितोसि चिरं नवदश मासे पूर्णैः ॥
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