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( ७४ ) अथ भावलिङ्ग स्वरूप वर्णनम् ।
देहादि संग रहिमो माणकसाएहि सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मिरओ सभावलिङ्गी हवे साहू ॥ ५६ ॥ देहादि संगरहितः मानकषायैः सकलं परित्यक्तः ।
आत्मा आत्मनिरतः स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ।। अर्थ-जो शरीरादिक २४ प्रकार के परिग्रह से रहित हो और मानकषाय से सर्व प्रकार छूटा हुवा हो और जिसका मात्मा मात्मा में लीन हो सो भावलिङ्गी साधु है ।
ममति परिवजामि णिम्पमतिमुवहिदो । आलंवणं च मे आदा अवसेसा इवोस्सरे ॥ ५७ ॥ ममत्वं परिवर्नामि निर्मगत्वमुपस्थितः ।
आलम्वनं न मे आत्मा अवशेषाणि व्युत्सृजामि ॥
अर्थ-मैं ममत्व ( ये मेरे हैं, मैं इनका हूं ) को छोड़ता हूं निर्ममत्व परिणामों में उपस्थित होता हूं। मेरा आश्रय आत्मा ही है आत्म परिणामों से भिन्न रागद्वेष मोहादिक विभाव भावों को छोड़ता हूं।
आदाखु मज्झणाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदापञ्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥ ५८ ।। आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च ।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ।। अर्थ-भावलिङ्गी मुनि ऐसी भावना करते हैं कि मेरे ज्ञानही में आत्मा है मेरे दर्शन में तथा चारित्र में आत्मा है प्रत्याख्यान में (परपदार्थ परित्याग मे ) आत्मा है । संवर में आत्मा है और योग (ध्यान) में आत्मा है।
भावार्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर, ध्यान आदि जितने आत्मीक अनन्त भाव हैं तिन स्वरूपही मैं हूं और
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