Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

View full book text
Previous | Next

Page 108
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- यह जीव शुभ अशुभ कर्मों का तथा आत्मीक भावों का कर्ता है, उन कर्मों के फलों का तथा आत्मीक परिणामों का भोगने वाला है अमूर्तीक है शरीर प्रमाण है अनादिनिधन ( अनादि अनन्त ) है और दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग सहित है। दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं । णिविइभविय जीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ॥१४९॥ दर्शन ज्ञानावरणं मोहनीयमन्तरायं कर्म । निष्टापति भव्यजीवः सम्यग्जिनभावनायुक्तः । अर्थ-~समीचीन जिन भावना सहित भव्य जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय इन चारों घाति या कर्मों का नाश करते हैं। वलसौक्ख णाणदंसण चत्तरिवि पायडागुणाहोंति । णघाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ।।१५०॥ वलसौख्यं ज्ञानदर्शनं चत्वारोपि प्रकटा गुणा भवन्ति । नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति ॥ अर्थ-उन घातिया कर्मों के नाश होने पर अनन्तवल अनन्तमुख अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन यह आत्मीक चारोंगुण प्रकट होते हैं और उनके ज्ञान में लोक अलोक प्रकाशित होते हैं। णाणीसिब परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो । अप्पोवियपरमप्पो कम्मविमुक्कोय होइफुडम् ॥१५॥ ज्ञानीशिवः परमेष्ठी सर्वज्ञाविष्णुः चतुर्मुखोवुद्धः । आत्मापि च परमात्मा कर्मविमुक्तश्च भवति स्फुटम् ।। अर्थ--यह संसारी आत्मा ही सम्यग्दर्शनादिक के निमित्त से कर्म बन्ध रहित होकर परमात्मा होता है जिसको ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध, कहते हैं। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146