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( १२१ ) तिहितिणि धरविणिचं तियरहिओतहतिएण परियरिओ । दो दोसविप्पमुको परमप्पा झायए जोई ।। ४४ ॥ त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेणपरिकलितः। द्विदोष विप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी ।
अर्थ-मन वचन काम कर तीनों (वर्षा शीत उष्ण ) कालो में सदा काल तीनों शल्यों ( माया मिथ्या निदान) को छोड़ता हुआ
और तीनों (दर्शन ज्ञान चरित) कर संयुक्त होकर दो दोषों ( रागश्रेष) से छटा हुवा योगी परमात्मा को ध्यावे हैं।
मयमाय कोहरहिओ लोहेण विवर्जिओ य जो जीवो । जिम्मल सभावजुत्तो सो पावइ उत्तपं सौक्खं ॥ ४५ ।।
मदमाया क्रोध रहितः लोभेन विवर्जितश्च यो जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः स प्रामोति उत्तम सौख्यम् ।।
अर्थ-जो जीव मद (मान) मायाचार क्रोध और लोभ से रहित है और निर्मल स्वभाव वाला है सोही उत्तम सुख को पावे है।
विसय कसायेहि जुदो रुद्दोपरमप्प भावरहिय मणो। सो ण लहहि सिद्धमुई जिणमुद्द परम्मुहो जीवो ॥ ४६ ।।
विषय काषायैर्युक्तः रुद्रः परमात्म भावरहित मनाः ।
स न लभते सिद्धसुखं जिनमुद्रा पराङ्मुखो जीवः ॥ अर्थ-जो विषय और कषायों से सहित है और परमात्मा की भावना से रहित है मन जिसका और जिनमुद्रा (दिगम्बर भेष) से विमुख है ऐसा रुद्र सिद्ध सुख को नहीं पावे हैं।
जिणमुई सिद्धिसुई हवेई णियमेण जिणवरुदिहा। सिविणेविणु रुघाइपुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥ ४७ ॥
जिनमुद्रा सिद्धसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा । स्वमेपि न रोचते पुनः जीवा तिष्ठन्ति भवगहने ॥
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