Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 132
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२७ ) अर्थ-आहार जय (क्रम से माहार को घटाना और वेला तेला पक्षोपवास मासोपवास आदि करना) आसनजय (पन्नासनादिक से २२४६ घड़ी वा दिन पक्ष मास वर्ष तक तिष्टा रहना) निद्राजय (एक पसवाड़े सोना एक प्रहर सोना न सोना)इनका अभ्यास जिनेश्वर की आशानुसार करके गुरु के प्रशाद से आत्मस्वरूप को जान कर निज आत्मा को ध्यावो। अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा । सो प्रायव्वो णिच्चं णाऊण गुरुपसाएण ॥ ६४ ॥ आत्मा चरित्रवान् दर्शन ज्ञानेन संयुतः आत्मा । स ध्यातव्यो नित्यं ज्ञात्वा गुरु प्रसादेन ॥ अर्थ--आत्मा चारित्रवान है आत्मा दर्शन शान सहित है ऐसा जान कर वह आत्मानित्य ही गुरु प्रशाद से ध्यावने योग्य है। दुक्खेण ज्जइ अप्पा अप्पाणाऊण भावणा दुक्खं । भाविय सहाव पुरिसो विसएसु विरचए दुक्खं ॥६५॥ दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् । भावित स्वभाव पुरुषो विषयेषु विरच्यते दुःखम् ।। अर्थ-बड़ी कठिनता से आत्मा जाना जात है और आत्मा को जानकर उसकी भावना ( अर्थात आत्मा का वारवार अनुभव ) करना कठिन है और भात्म स्वभाव की भावना होने पर भी विषयों ( भोगादि ) से विरक्त होना अत्यन्त कठिन है। ता मणणजइ अप्पा विसएसु णरोपवदए जाम । विसए विरत्त चित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ॥६६॥ तायत् न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत् । विषय विरक्त चितः योगी जानाति आत्मानम् ॥ अर्थ-जब तक यह पुरुष विषयों में प्रवते है तब तक आत्मा को नहीं जाने है । जो योगी विषयों से विरक्त चित्त है वही आत्मा को आने है। For Private And Personal Use Only

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