Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 137
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३२ ) अर्थ-जे योगौश्वर ऐसी भावना कि मेरा उर्ध्वलोक अधोलोक तथा मध्यलोक में कोई भी नहीं है मैं अकेलाही हूं वह शास्वत सुख अर्थात मोक्ष को पावे हैं देवगुरुणं भत्ता णिव्य परंपरा विचिंतता । झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ॥ ८२ ॥ देवगुरूणां भक्ताः निर्वेद परम्परा विचिन्तयन्तः । ध्यानरता सुचरित्राः ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥ अर्थ-जे अष्टादश १८ दोष रहित गुरु और २८ मूलगुण धारक गुरु के भक्त हैं निर्वद (संसार देह भोगों से विरागता) की परम्परा रूप उपदेश की विशेषता से विचारते हैं, ध्यान में तत्पर हैं और उत्तम चारित्र के धारक हैं ते मोक्षमार्गी हैं। णिच्छय णयस्स एवं अप्पा अप्यम्मि अप्पणेसुरदो। सो होदिहु सुचरित्तो जोई सो लहइणिव्याणं ।। ८३ ॥ निश्चयनयस्यैवम् आत्माऽऽत्मनि आत्मनेसुरतः। सो भवति स्फुटं सुचरित्रः योगी सो लभते निर्वाणम् ।। अर्थ-निश्चयनयका ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा आत्मा के लिये आत्मा में ही लीन होता है वही आत्मा उत्तम चारित्रवान् योगी निर्वाण को पावे है। पुरुसायारो अप्पा जोई वरणाणदंसण समग्गो। जो झायदि सोयोई पावहरी हवदिणिहो ॥ ८४ ॥ पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शन समग्रः । योध्यायति स योगी पापहरो भवति निर्द्वन्द्वः ।। अर्थ-पुरुष के आकार के समान है आकार जिसका ऐसा आत्मा उत्तम ज्ञान दर्शन कर पूर्ण और मन वचन काय के योगों का निरोध करने वाला जो आत्मा को ध्यावे है वह योगी है पापों का नाश करने वाला है और निद्वन्द ( रागद्वेपादि रहित) होजाता है। For Private And Personal Use Only

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