Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 142
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३७ ) अर्थ - जो साधु अट्ठाइस मूल गुणों का छेदन करके अन्य वाह्य कर्म करे हैं सो सिद्धसुख को नहीं पावे हैं किंतु वह सदाकाल जिनलिङ्ग की विराधना अर्थात् बदनामी करने वाला है । किं कहादेवकिम्मं किं काहदि बहुविडंच खवणंच । किं काहिदि आदावं आद सहावस्स विवरीदो ||१९|| किं करिष्यति बाह्यकर्म किं करिष्यति बहुविधं च क्षपणंच । किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावस्य विपरीतः ॥ अर्थ - आत्मीक स्वभाव दर्शन ज्ञान क्षमादि स्वरूप से विपरीत अज्ञान मोह कषादि सहित वाह्य कर्म क्या कुछ कर सकै हैं ? ( मोक्ष दे सके है ? ) अर्थात् नहीं, और बहुत प्रकार किये हुवे क्षपण (उपवास) कुछ कर सके हैं ? तथा आतापन योग (धूप कायोत्सर्ग करना) भी कुछ कर सके हैं ? अर्थात कुछ नहीं । भावार्थ केवल शारीरक क्रिया मात्र आत्मा को निराकुल सुख नहीं कर सके हैं। जड़ पर दाणिय जदि काहदि बहुविज्ञेय चरित्तो । तं वालसुयं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीयं ॥ १०० ॥ यदि पठति श्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधानि चारित्राणि । तद्वाश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् ॥ अर्थ - जो आत्म स्वभाव से विपरीत वाह्य अनेक तर्क व्याकरण छन्द अलंकार साहित्य सिद्धान्त तथा एकादशाङ्ग दशपूर्व का अध्ययन करना है सो बालश्रुत है, तथा आत्मीक स्वरूप विरुद्ध अनेक चारित्र करना बाल चारित्र है । वेरग्गपरोसाहू परदव्वपरमुहोय सो होई । संसारसुहविरतो सगमुद्धमुहेसु अणुरत्तो ॥ १०१ ॥ गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेय णिच्छदो साहू | झणझणेसुरदो सो पावई उत्तमठाणं ॥ १०२ || वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च स भवति । संसारसुखाविरक्तः स्वकशुद्धंसुखेषु अनुरक्तः ॥ १०१ ॥ For Private And Personal Use Only

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