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( १२८ ) अप्पा गाऊण णरा केई सम्भाव भावयभट्टा। हिंडंति चाउरंगं विसएमु विमूहया मूढा ॥६॥
आत्मा ज्ञात्वा नराः केचित्स्वभाव भाव प्रभ्रष्टाः । हिण्डन्ते चातुरङ्गे विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ अर्थ-आत्मा को मान कर भी भात्मस्वभाव की भावना से अत्यन्त भ्रष्ट होते हुवे विषयों में मोहित हुवे भज्ञानी जीव चतुर्गति संसार में अमें हैं।
भवार्थ-आत्मा को जान कर विषयों से विरक्त होना चाहिये । जे पुण विसय विरत्ता अप्पाणऊण भावणा सहिया । छति चाउरंगं तव गुण जुत्ता ण संदेहो ॥६८॥
ये पुनः विषय विरक्ता आत्मानं ज्ञात्वा भावना सहिताः। त्यजन्ति चातुरङ्गं तपोगुण युक्ता न सन्देहः ॥
अर्थ-जनिकट भव्य विषयों से विरक्त हैं आत्मा को जान कर आत्म भावना करें है ते द्वादश तप २८ मूल गुण तथा उत्तर गुण सहित होते हुवे अवश्यं चतुर्गति संसार को छोड़े हैं इसमें सन्देह नहीं।
परमाणु पमाणं वा परदव्वे रादि हवेदि मोहादो। सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीदो ॥ १९ ॥ परमाणुं प्रमाणं वा परद्रव्ये रति भवेति मोहात् ।
स मूढ अज्ञानी आत्म स्वभावाद्विपरीतः ॥ अर्थ- जिसकी पर द्रव्यों में परमाणु मात्र ( किंचित् ) भी मोह से रति (प्रीति) है वह मूढ़ अशानी आत्म स्वभाव से विपरीत है।
अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताण । होदि धुवं णिव्वाणं विसऐसु विरत्त चित्ताणं ॥ ७० ॥
आत्मानं ध्यायतां दर्शन शुद्धीनां दृढ चारित्राणाम् । भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्त चित्तानाम् ॥
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