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( १२९ ) अर्थ-चल मलिन और अगाढ़ता रहित है सम्यग्दर्शन जिन का वृह्मचर्यादिक चारित्र में दृढ (स्थित ) है विषयों से विरक्त है चित्त जिनका ऐसे शुद्ध आत्मा के ध्यान करने वाले को अवश्य निर्वाण होवे है।
जेण रागो परे दब्बे संसारस्सहि कारणं । तेण वि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पेसु भावणा ॥७॥
येन रागः परे द्रव्ये संसारस्यहि कारणम् । तेनापि योगी नित्यं कुर्य्यादात्मसु भावनाम् ।।
अर्थ-परद्रव्यों में राग का करना संसार का ही कारण है इसीसे योगीश्वर नित्यही आत्मा में भावना करें।
जिंदए य पसंसाए दुक्खे य मुहएमु य । सत्तूणं चैव बन्धूणं चारित्तं सम भावदो ॥ ७२ ।। निन्दायां च प्रसंसायां दुःखे च सुखेषु च ।
शत्रूणां चैव बन्धुणां चरित्रं सम भावतः ।। अर्थ-निन्दा और प्रसंसा में तथा दुःख और सुखों के प्राप्त होने पर तथा शत्रु और मित्रों के मिलने पर समता (द्वेष और राग का न होना ) भाव होने से सम्यक चारित्र ( यथाख्यात चारित्र) होता है।
चरिया बरिया पदसपिदि वज्जिया मुद्ध भाव पव्भट्टा । केई जंपंति णराणहु कालो झाण जोयस्स ||७३।।
चर्या वरिका व्रतसमिति वर्तितो शुद्ध भाव प्रभ्रष्टाः कोचत जल्पन्ति नराः नहिं कालो ध्यान योगस्य ।।
अर्थ-चर्या अर्थात् आचार केरोकनेवाले,व्रत और समितिसे रहित और आत्मीक शुद्ध भावों से भ्रष्ट ऐसे कईएक पुरुष कहते हैं किं यह काल ध्यान करने योग्य नहीं हैं।
सम्मत्त णाणरहिओ अभव्यजीवोहि मोक्खपरिमुको । संसारमुहेसुरदो गंहु कालो हचइ झाणस ।। ७४ ॥
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