Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 131
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२६ ) मनः पर्यय ज्ञान ) के धारी श्री तीर्थकर परम देव भी तपश्चरण को करै हैं ऐसा निश्चय स्वरूप जान कर छान सहित होते हुवे भी तपश्चरण को करो। भावार्थ-बहुत से पुरुष स्वाध्याय करने से तथा व्याकरण तर्क साहित्य सिद्धान्तादिक के पठन मात्र ही से सिद्धि समझ लेते हैं उनके प्रबोध के लिये यह उपदेश है कि द्वादशांग के शाता और मन पर्यय मान कर भूषित तथा मति शान और अवाध ज्ञान धारी श्री तीर्थकर भी वेला तेला आदि उपवास कर के ही कर्म को भस्म करे हैं इससे ज्ञानवान पुरुष व्रत तप उपवासादि अवश्य करें। वाहरलिंगेणजुदो अब्भंतर लिंगरहित परियम्मो । सो सगचरित्तभट्टो मोक्त्वपहविणासगो साहू ॥ ६१॥ वहिलिङ्गेनयुतः अभ्यन्तरलिङ्गरहित परिका । ___ स स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः ॥ अर्थ-जो वाह्य लिङ्ग ( नग्नमुद्रा) कर सहित है और जिसका चारित्र आत्मस्वरूप की भावना से रहित है वह अपने आत्मीक चरित्र से भ्रष्ट है और मोक्षमार्ग को नष्ट करे हैं सुहेण भाविदंणाणं दुक्खे जादे विणस्सदि । तम्हा जहावलं जोई अप्पा दुक्खेहिं भावह ॥ ६२ ॥ सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति । तस्माद् यथावलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत् ।। अर्थ-सुखकर (नित्यभोजनादिक कर ) भावित किया हुवा शान दुःख आने पर ( भोजनादिक न मिलने पर ) नष्ट होजाता है इससे योगी यथा शक्ति आत्मा को दुःखों कर (उपवासादिक कर) अनुवासित करे अर्थात् तपश्चरण करै । आहारासणणिद्दा जयं च काऊण जिणवर मरण । झायव्यो णियअप्पा णाऊण गुरुवएसेण ॥ ६३ ॥ आहारासननिद्रा जयं च कृत्वा जिनवर मतेन । ध्यातव्यो निजात्मा ज्ञात्वा गुरु प्रशादेन ॥ For Private And Personal Use Only

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