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( १२२ )
अथ - जिन मुद्रा अर्थात दिगम्बर हो नियम कर मोक्ष सुख है यहां कारण में कार्य का उपचार कहां है अर्थात जिन मुद्रा के धारण करने से मोक्ष का सुख मिलता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है, जिसको यह जिनमुद्रा स्वप्न में भी नहीं रुचे हैं वह पुरुष संसार रूपी नही में रहे हैं । अर्थात् जिसको जिन मुद्रा से कुछ भी प्रीत नहीं है वह संसार से पार नहीं हो सकता ।
परमप्पय झायंतो भोई मुच्चे मलदलोहेण ।
नादियदि णवं कम्पं मिद्दिहं जिणवरिंदेहिं ॥ ४८ ॥ परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलद लोभेन । नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥
अर्थ — परमात्मा के ध्यान करने वाला योगि पापों के उत्पन्न करने वाले लोभ से छूट जाता है इसी से उसके मवीन कर्म बन्ध नहीं होता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ।
होऊण दिढ चरित्तो दिढ सम्मतेण भाविय मदीओ । झायंतो अप्पाणं परमपयं पावर जोई ।। ४९ ॥
भूत्वा दृढ़चरित्रः सम्यक्त्वेन भावितमतिः । ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ।।
अर्थ - जो योगी दृढ़ सम्यक्त्वी और दृढ़ चारित्रवान् होकर मात्मा को ध्यावे है वह परमपद को पावे है ।
चरणं व सधम्मो धम्मो सोहवर अप्पसमभावो । सोणारोस रहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ॥ ५० ॥ चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः स भवति आत्मसमभावः । स रागरोष रहितः जीवस्य अनन्य परिणामः ॥
अर्थ – चारित्र ही आत्मा का धर्म है वह धर्म सर्व जीवों में समभाव स्वरुप है और वह समभाव रागद्वेष रहित है यही जीव का अनन्य ( एकस्वरूप - अभिन्न ) परिणाम है ।
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