Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 128
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२३ ) जह फलिद्दमणिविसुद्ध परदव्वजुदो हवे अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अण्णष्णविहो ॥ ५१ ॥ यथा स्फटिकमणिविशुद्धः परद्रव्यजुतो भवति अन्यादृशः । तथा रागादिवियुक्तः जीवो भवति स्फुटमन्योन्य विधः ॥ अर्थ- जैसे स्फटिकमणि विशुद्ध है परन्तु हरित पति नील आदि पर द्रव्य के संयुक्त होने से अन्यरूप अर्थात हरित नील आदि के रूप वाली होजाती है तैसे ही रागादि परिणामों से सहित आत्मा भी अन्य अन्य प्रकार का होजाता है । भावार्थ - जैसे स्फटिकमणि में नील डाक लगने से वह नील होजाती है और पीत से पीत तथा हरित से हरित होजाती है तैसे ही आत्मा स्त्री में राग रूप होने से रागी और शत्रु में द्वेष करने से द्वेषी तथा पुत्र में मोह करने से मोही होता है । देवगुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजदेसु अणुरत्तो । सम्पत्त मुव्वहंतो झाणरओ हवदि जोई सो || ५२ ॥ देवेगुरौ च भक्तः साधर्मिक संयतेषु अनुरक्तः । सम्यक्त्व मुद्दहन् ध्यानरतः भवति योगी सः ॥ अर्थ - - जो देव गुरु का भक्त है तथा साधर्मी मुनियों से वात्सल्य अर्थात प्रीति करे है और सम्यक्त्व को धारण करे है साई योगी ध्यान में रत होता है । भावार्थ - जिस गुण से जिसकी प्रीति होती है उस गुण वाले से उसकी अवश्य प्रीति होती है, जो सिद्ध ( मुक्त ) होना चाहता है उसकी प्रीति ( भक्ति ) सिद्धों में तथा सिद्ध होने वालो में और सिद्धों के भक्तों में अवश्य होगी । उग्ग तवेण्णण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहिं वहुएहिं । तं णाणी तिहिगुत्तो खवेइ अंतो मुहुत्तेण || ५३ ॥ उग्रतपसाऽज्ञानी यत्कर्म क्षपयति भवैर्वहुभिः । तत् ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्तेन ॥ For Private And Personal Use Only

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