Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 109
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ( १०४ ) इयघाइकम्ममुक्को अट्ठारसदोस वजिओ सयलो । तिहुवण भवण पईचो देउमम उत्तमं वोहं ॥१५२।। इति धातिकममुक्तः अष्टादशदोषवजितः सकलः । त्रिभुवन भवनप्रदीपः ददातु मह्यमुत्तमं बोधम् ॥ अर्थ-इस प्रकार घातिया कर्मों से रहित, क्षुधादिक अठारह दोषों से वर्जित परमौदारिक शरीर सहित और त्रिलोक रूपी मन्दिर के प्रकाशने में दीपक के समान श्रीअहंत देव मुझे उत्तम बोध देवो! जिणवर चरणांबुरुहं णमंतिजे परमभत्तिएएण । तेजम्मवेल्लिमूलं खणन्ति वरभावसच्छेण ॥१५॥ जिनवर चरणाम्बुरुहं नमन्तिये परमभक्तिरागेन । तेजन्मवल्लीमूलं खनीन्त वरभावशस्त्रेण ॥ अर्थ-जो भव्यजीव परम भक्ति और अपूर्व अनुराग से जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों को नमस्कार करते हैं ते पुरुप उत्तम परिणाम रूपी हथियार से संसार रूपी बेलि की जड़ को खोदत हैं अर्थात मि. थ्यात को नाश करते हैं। जहसलिलेण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण पलिप्पइ कसाय विसरहिं सप्पुरुसो ॥१५४।। यथा सलिलन न लिप्यते कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या । तथा भावन नलिप्यते कषायविषयैः सत्पुरुषः ।। अर्थ-जैसे कमलिनी के पत्र को स्वाभाव से ही जल नहीं लगता है तैसे ही सत्पुरुष अर्थात् सम्यगदृष्टि जिन भक्ति भाव सहित होने से कषाय और विषयों में लिप्त नहीं होते हैं। तेविय भणामिइंजे सयल कलासीलसंजमगुणेहि । बहुदोसाणावासो सुमलिण चित्तोणसावयसयोसो ॥१५५॥ तेनापि भणामिअहं ये सकल कलाशील संयममुणैः । वहुदोषाणामावासः समलिनचित्तः न श्रावकसमः सः ॥ For Private And Personal Use Only

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