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अर्थ - तपश्चरण करके स्वर्ग को सर्व ही भव्य अभव्य तथा जिनधर्मी अन्य धर्मी भी पाव हैं तथापि जो ध्यान के योग से स्वर्ग पायें हैं वह परलोक में अविनश्वर सुख को पावें हैं
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आइसोहण जोपण सुद्धं हेमं हवे जह तह यं । कलाई लद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि || २४ ॥
अति शोभन योगेन शुद्धं हेम भवति यथा तथाच | कालादि वा आत्मा परमात्मा भवति ॥
अर्थ-जैसे सुवर्ण पाषाण उत्तम शोधन सामिग्री के निमन्त से निर्मल सुर्वण बनजाता है तैसे ही कालादिक लब्धिओं को पाकर यह संसारी आत्मा परमात्मा हो जाता है ।
वर वयतवेहि सग्गो मादुक्खं होउ णिरय इयरेहिं । छाया तवठियाणं पडिवालं ताण गुरु भेयं ।। २५ ।। वरं व्रत तपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतुनरके इतरैः । छाया तपस्स्थितानां प्रतिपालयतां गुरु भेदः ||
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अर्थ - व्रत और तप से स्वर्ग होता है यह तो अच्छी बात है परंतु अव्रत और अतप से नरक विषे दुख नहीं होना चाहिये, छाया और धूप में बैठने वालों के समान व्रत और अव्रतों के पालनेवालों में बड़ा भेद है ।
भावार्थ - छाया में बैठने वाला मनुष्य सुख पावे है तैसे ही व्रत पालन करने वाला स्वर्गादिक सुख पावें हैं और धूप में बैठने वाला मनुष्य दुख पावें है तैसे ही अत्रतों को आचरण करने वाला अर्थात् हिंसा आदिक करनेवाला दुःख पावे है इन दोनों में बड़ा भारी भेद हैं। एसा समझ कर व्रत अङ्गीकार करो ।
जो इच्छदि निस्सरिदुं संसार महण्णवस्स रुद्दस्स । कम्मि धणाण डहणं सोझायइ अप्पयं सृद्धं ॥ २६ ॥ य इच्छति निस्मृतं संसार महार्णवस्य रुद्रस्य । मन्धनानां दहनं स ध्यायति आत्मानं शुद्धम् ॥
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