Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 118
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - अर्थ-परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से सुगति ( मोक्ष ) होती है ऐसा जान कर अपने आत्मीक द्रव्य में प्रीति करो और अन्य (वाह्य ) पदार्थों में विरति अर्थात् बिरक्तता करो। आदसहावा वण्णं सञ्चिताचित्तमिस्सियं हवादि । तं परदव्वं भणियं अविच्छिदं सवदरसीहि ॥ १७ ॥ आत्मस्वभादन्यत् सचित्ताचित्तमिश्रितं भवति । तत् परद्रव्यं भाणतम्-अवितथं सर्वदर्शिभिः ।। अथ-जो आत्मस्वरूप से अन्य है ऐसे सचित्त अर्थात् पुत्र कलत्रादिक और अचित्त अर्थात् धन धान्य आदिक और मिश्रित अर्थात् आभूषण रहित स्त्री आदिक पदार्थ सर्वही पर द्रव्य है एसा सवज्ञ दव ने सत्यार्थ वर्णन किया है। दुढ कम्म रहियं यशोवर्ष णाणानिग्गरं णिञ्च । मुद्धं जिणेहि कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ॥ १८ ॥ दुष्टाप्ट कर्म रहितम् नपर्म ज्ञानविग्रहं नित्यम् । शुद्ध जिनैः कथितम्, आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ।। अथ-~-दुष्ट ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों से रहित अनुपम् शान ही है शरीर जिसका, अविनश्वर शुद्ध अर्थात् कर्म कलकरहित केवल ज्ञानमयी आत्मा और स्वद्रव्य है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है। जे झायंति सदव्वं परदव्वं परंमुहा दु सुचरित्ता। ते जिणवरा णमग्गं अणुलग्गा लहहि णिव्याणं ॥ १९ ॥ ये ध्यायन्ति स्वद्रव्यं परद्रव्य पराङ्मुखास्त सुचरित्राः । ते जिनवराणां मार्गमनुलाना लभन्ते निर्वाणम् ॥ अर्थ--जो पर पदार्थो से परांमुख और उत्तम चारित्र के धारक साधु स्वद्रव्य को अर्थात् अपनी आत्मा को ध्याव है वे जिनंद्र देव के मार्ग में लगेहुवे अवश्य निर्वाण को पाव है। जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं । जण लहहि णिव्याणं ण लहहि किं तेण सुरलोयं ॥ २० For Private And Personal Use Only

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