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( १०७ ) शिवमजरामर लिङ्ग-मनुपम मुत्तमं परमविमल मतुलम् ।
प्राप्ता वरं सिद्धिमुखं जिन भाक्ना भाविता जीवाः ॥ अर्थ-जो जिन भावना सहित हैं ते ही जीव उस उत्तम मोक्ष सुख को पाते हैं जोकि कल्याण स्वरूप हैं, जरा और मरण रहित होना जिसका चिह्न है, जो उपमा रहित है, उत्तम है अत्यन्त निर्मल और अनन्त है,
तेमे तिहुवण महिया सिद्धासुद्धाणिरंजणाणिचा । दितु वरभाव सुद्धिं दसणणाणे चरित्तेय ॥१६॥
ते मे त्रिभुवन महिता सिद्धा शुद्धा निरञ्जनानित्या । __ ददतु वर मावशुद्धिं दर्शनज्ञाने चारित्रे च ॥
अर्थ--जो कर्ममल से शुद्ध हो चुके हैं और नवीन कर्म बन्ध रहित हैं नित्य हैं और तीनों जगत में पूज्य हैं ते जगन प्रसिद्ध सिद्ध परमेष्टी मेरे दर्शन ज्ञान और चारित्र में उत्तम भावशुद्धि देवें ।
किं जंपिएण वहुणा अच्छोधम्मोय काममोक्खोय । अण्गेविय वावारा भावाम्म परिहया सुद्धे ॥१६४॥ किं जल्पितेन बहुना अर्थोधर्मश्च कामामोक्षश्च ।
अन्येपि च व्यापार! मावपरिस्थिताशुद्धे ॥ अर्थ- बहुत कहने से क्या अर्थ [धन संपत्ति ] धर्म [ मुनि श्रावकधर्म ] काम [पञ्चन्द्रिय सुखदायक इष्ट भोग] मोक्ष [समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव इत्यादि अन्य भी व्यापार ते सर्व ही शुद्ध भावों में तिष्ठं है अर्थात् शुद्ध भाव होने से ही सिद्ध हो सकते हैं अशुद्ध भावों से नहीं। इयभारपाहुइमिणं सव्वबुद्धेहिं देसियं सम्म । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ॥१६॥ इति भावप्राभृतमिदं सर्वबुद्धैः देशितं सम्यक् । यः पठति शृणोति भवयति सप्राप्नोति अविचलं स्थानम् ॥
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