Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 106
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०१ ) पाखण्डिनः त्रिणिशतानि त्रिषष्ठिःभेदा तन्मार्ग मुक्त्वा । रुन्द्धि मनो जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं वहुना ।। अर्थ-भो आत्मन् ? तुम ३६३ तीन से तिरेषठ पाखण्डी मार्ग को छोड़कर अपने मन को जिन मार्ग में स्थापित करो यह संक्षेप वर्णन कहा है निरर्थक बहुत बोलने से क्या होता है। जीव विमुक्को सवओ देसण मुक्कोय होइ चलसवओ । सवओ लोय अपुज्जो लोउत्तरयम्मि चल सवओ ॥१३॥ जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवकः । शवको लोकापूज्यः लोकोत्तरे चलशवकः ॥ अर्थ-जीव रहित शरीर को शव (मुरदा) कहते हैं और सम्यग्दर्शन रहित जीव चलशव अर्थात् चलने फिरने वाला मुरदा है, लोक में मृतक अनादरणीय अर्थात् पास रखने योग्य नहीं है उसको जला देते हैं या गाड़ देते हैं तैसे ही चलशव अर्थात् मिथ्या दृष्टि जीव का लोकोत्तर में अर्थात् परभव में अनादर होता है भावार्थ नीच गति पाता है। जह तारायण चंदो मयराओ मयकुलाण सव्वाणं । अहिओ तहसम्मत्तो रिसि सावय दुविहधम्माणं ॥१४४॥ यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजो मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वम् ऋषिश्रावक द्विविधधर्माणाम् ॥ अर्थ-जैसे ताराओं के मध्य में चन्द्रमा प्रधान हैं और जैसे समस्त धन के पशुओं में सिंह प्रधान है तैसे मुनि श्रावक सम्बन्धी दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है। जह फणिराओ रेहड़ फणमणि माणिक्ककिरण परिफिरिओं तह विमलदसणधरो जिणभत्ती पवयणे जीवो ॥१४॥ यथा फणिराजो राजते फणमणि माणिक्यकिरणपरिस्फुरितः तथा विमलदर्शनधरः जिनमक्तिः प्रवचने जीवः ।। For Private And Personal Use Only

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