Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 105
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-अभव्यजीव जिनधर्म को उत्तम प्रकार सुन कर भी अपनी प्रकृति को अर्थात् मिथ्यात्व को नहीं छोड़ता है। जैसे शक्कर से मिले हुवे दूध को पीता हुवा भी सर्प ज़हर नहीं छोड़ देता है। मिच्छतछण्णदिट्ठी दुद्धीए रागगहगहिय चितेहिं । धम्मं जिणपणत्तं अभव्यजीवो ण रोचेदि ॥ १३९ ।। मिथ्यात्वछन्नदृष्टिः दुद्धी रागग्रहग्रहीत चित्तैः । __ धर्म जिनप्रणीतम् अभव्यजीवो न रोचयति ॥ अर्थ-मिथ्यात्व से ढका हुआ है दर्शन जिसका ऐसा दुर्बुद्धि अभव्य जीव राग रुपी पिशाच से पकड़े हुवे मन के कारण जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में रुचि नहीं करता है। कुच्छिय धम्मम्मिरओ कुच्छिय पाखण्डिभत्ति संजुत्तो। कुच्छिय तपं कुणन्तो कुच्छिय गइ भायणो होई ॥ १४० ॥ कुत्सित धर्मेरतः कुत्सितपाखाण्डि भक्ति संयुक्तः । कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगति भाननं भवति । अर्थ-जो कुत्सित, निन्दित धर्म में तत्पर है, खोटे पाखण्डियों की भक्ति करता है और खोटे तप करता है वह खोटी गति पाता है । इयमिच्छत्तावासे कुणय कुसच्छेहि मोहिओ जीवो। भमिओ अणाइ कालं संसार धीरे चिंतेहि ॥१४१॥ इति मिथ्यात्वावासे कुनय कुशास्त्रैः मोहितो जीवः । भ्रान्तः अनादि कालं संसारे धीर चिन्तय ॥ अर्थ-इस प्रकार कुनयों और पूर्वापर विरोधों से भरे हुवे कुशास्त्रों में मोहित हुवे जीवने अनादि काल से मिथ्यात्व के स्थान रूपी संसार में भ्रमण किया सो हे धीर पुरुषों ? तुम विचारो पाखंडीतिणिसया तिसहि भेयाउमग्ग मुत्तूण। रुंभाहि मण जिणमग्गे असप्पलावणकि वहुणा ॥१४२॥ For Private And Personal Use Only

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