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अवधि मनः पर्यय और केवल ज्ञान को शीघ्रही भावो जो कि अज्ञान के नाश करने वाले हैं। जो कोई भावना कर भावित किये हुवे भावों ( परिणामों ) कर सहित है सोई स्वर्ग मोक्ष के सुख का पात्र बनता है । पढिएणवि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण । भावो कारण भूदो सायार णयार भूदाणं || ६६ ॥ पठितेनापि किं क्रियते किंवा श्रुतेन भावरहितेन ।
भावः कारणभूतः सागारा नगार भूतानाम् ॥ अर्थ-भाव रहित पढ़ने वा सुनने से क्या होता है ? सागार श्रावक धर्म और अनगार ( मुनि ) धर्म का कारण भावही है । दब्बेण सयल जग्गा णारयतिरियाय संघाय ।
परिणामेण अशुद्धा ण भाव सवणत्तणं पत्ता ॥ ६७ ॥ द्रव्येण सकला नग्ना नारकातिर्यञ्चश्च सकलसंघाध | परिणामेण अशुद्धा न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः ॥
अर्थ - द्रव्य [ वाह्य ] कर तो समस्त ही प्राणी नग्न [ वस्त्र रहित ] हैं, नारकीतिर्यच तथा अन्य नर नारी [ वालक वगैराः ] वस्त्ररहित ही है, परन्तु वे सर्वपरिणामों से अशुद्ध हैं अर्थात् भावलिंगी मुनि नहीं हो गये हैं अर्थात् विना भाव के वस्त्र रहित होना कार्यकारी नहीं है।
जग्गो पावर दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमई ।
जग्गो ण लहइ वोहिं जिण भावण वज्जिओ मुइरं ॥ ६८ ॥ नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसार सागरे भ्रमति । नग्नो न लभते बोधिं जिन भावना वर्जितः ॥
अर्थ - जिन भावना रहित नग्न प्राणी नाना प्रकार के चतु गति सम्बन्धी दुःखों को पाता है। जिन भावना रहित नग्न प्राणी संसार सागर में भ्रमता है और भावना रहित नग्न प्राणी [ वोषिरत्नत्रयलब्धि ] को नहीं पाता है 1 असाण भायणय किन्ते णग्गेण पाप मळिणेण । पैमुण्णहासमच्छर माया बहुलेण सवणेण ॥ ६९ ॥
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