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( ७५ )
येही ज्ञानादिक मेरे स्वरूप हैं। अन्य स्वरूप मैं नहीं हूं और न अन्य मेरा स्वरूप है ।
एगो मे सास्सदोअप्पा णाणं दंसण लक्खणो । सेसा मे वाहिराभावा सव्वे संजोगलक्खणा ।। ५९ ।।
एको मे शास्वत आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षणः ।
शेषा मे वाह्या भावा सर्वे संयोग लक्षणाः ॥
अर्थ - भावलिङ्गी मुनि विचार करते हैं कि मेरा आत्मा एक है शास्वता है और ज्ञानदर्शन ही उसका लक्षण है । रागद्वेषादिक अन्य समस्तही संयोग लक्षण वाले भाव वाह्य हैं ।
भावेह भाव सुद्धं अप्पासुविसुद्ध णिम्मलं चैत्र ।
लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं ॥ ६० ॥ भावयत भावशुद्धं आत्मानं सुविशुद्धं निर्मलं चैव । लघु चतुर्गतिं त्यक्त्वा यदि इच्छत शास्वतं सुखम् || अर्थ-भो मुनीश्वरो ? जो आप यह बांछा करते हो कि शीघ्र
ही चारों गतिओं को छोड़कर अविनाशी सुख को प्राप्त करो तो भाव शुद्ध करके जैसे तैसे कर्ममल रहित निर्मल आत्मा को भावो चिन्तवो ध्यावो ।
जो जीवो भावतो जीव सहावं सुभाव संजुत्तो ।
सो जर मरण विणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ॥ ६१ ॥
यो जीवो भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः ।
स जन्म मरण विनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वानम् ॥
अर्थ - जो भव्य जीव शुद्ध भाव सहित आत्मा के स्वभावों को भावे है वह ही जन्म मरण का विनाश करे है और अवश्य निर्वाण को पावै है ।
जीवो जिणपण्णत्तो णाण सहाभोय चेयणा सहिओ । सो जीवो णायव्त्रो कम्मक्खय कारण निमित्ते ॥ ६२ ॥
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