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( ८८ ) पावंति भावसवणा कल्लाणपरं पराइ सुक्खाई । दुक्खाई दव्व समणा णरतिरिय कुदेव जोणीए ॥१००॥
प्राप्नुवन्ति भावश्रमणाः कल्याण परम्पराय सुखानि ।
दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतियङ्कुदेवयोनौ ॥
अर्थ-भाव मुनिद्दी गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और कल्यान रूपी पाञ्च कल्याणों के सुखों को पाते हैं और द्रव्य मुनि मनुष्यतिर्यंच और कुदेवों की योनि (गति ) मै दुःखों को पाते हैं।
छादाल दोषसिय असणं गसिऊ असुद्धभावेण । पत्तोसि महावसणं तिरिय गईए अणप्पवसो ॥१०१।।
षट्चत्वारिंशदोष दूषित मशनं ग्रसित्वाऽशुद्ध भावेन !
प्राप्तोसि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ॥ अर्थ-भो मुने ! ४६ दोषयुक्त अशुद्ध भावों से आहार ग्रहण करने से तुमने तियञ्च गतिमें परवश होकर छेदन भेदन भूख प्यास आदि महान दुःख उठाये हैं
सचित्त भत्तपाणं गिद्धीदप्पेणधी पभुत्तूण । पत्तोसि तिव्वदुःखं अणाइकालेण तं चिंत्त ॥१२॥
सचित्त भक्तपानं गृद्धयादर्पण अधीप्रभुक्त्वा ।
प्राप्तोसि तीव्रदुःखं अनादिकालेनत्वं चिन्तय ॥ अर्थ-- भो मुनिवर ? विचार करो कि तुमने अशानी होकर अत्यन्त अभिलाषा तथा अभिमान अर्थात उद्धत पने के साथ सचित्त ( सजीव) भोजन पान करके दुःखो को अनादि काल से अनेक तीन दुःख उठाये है।
कंदवीयं मूलंपुप्फ पत्तादि किं सचित्तं । असिऊण माणगव्वे भमिऊसि अणंत संसारे ॥१०॥
कन्दं वीजं मूलं पुष्पं पत्रादि किंच स चित्तम् । अशित्वा मानेन गर्वेण भ्रमितोसि अनन्तसंसारे ॥
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