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मिथ्यात्वं तथा कषयाऽसंयम योगैरशुभलेश्यैः ।। बध्नाति अशुभं कर्म मिनवचनपण्ङमुखो जीवः ॥
अर्थ-जिन बचनों से पराङ्मुख हुआ जीव मिथ्यातत्त्व, कषाय असंयम, और योग और अशुभ लक्ष्या से पाप कर्मों को बांधते हैं ।
सविपरीओ बंधइ सुहकम्मं भावमुद्धिमावण्णो । दुविड पयारं बंधइ संखेपेणैव वज्जरियं ।। ११८ ।।
तद्विारीतः बध्नानि शुभकर्म भावशुद्धिमापन्नः । द्विविधप्रकारं वध्नाति संक्षेपेणैव उच्चरितम् ॥ अर्थ-जिन बचनों के सम्मुख हुआ जीव भावों की शुद्धता सहित होकर दोनों प्रकार के बन्ध को बांधे हैं । ऐसा जिनेंद्र दव ने संक्षेप से वर्णन किया है । अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि पाप पुण्य कर्म दोनों को बांधे हैं ? तथापि पाप प्रकृतियों में मन्दरस पड़ता है।
णाणावरणादीहिय अहि कम्मेहि वेदिओय अहं । दहि ऊण इण्हिपयडमि अणंत जाणाइ गुणचिन्ता ॥११९।।
ज्ञानावरणादिभिश्च अष्टाभिः कर्मभिः वेष्टितश्चाहम् ।
दग्ध्वा इमा प्रकृतीः अनन्तज्ञानादि गुण चेतना ॥ अर्थ-भो मुनिवर ? तुम ऐसा बिचार करो कि मैं शाना बरणादिक अष्ट कर्मों से और १४८ उत्तर प्रकृतियों से तथा असंख्याते उत्तरोत्तर प्रकृतियों से ढका हुआ हूँ। इन प्रकृतियों को भस्म कर अनन्त ज्ञानादि गुण मयी चेतना को प्रकट करूं ।
सीलसहस्सहारस चउरासी गुणगणाण लक्खाई । भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलापेण किं वहुणा ॥१२०॥ शीलसहश्राष्टादश चतुरशीति गुणगणानां लक्ष्याणि ।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना ।। अर्थ-भो साधो ? तुम १८००० शीलों को और ८४००००० उत्तर गुणों को प्रति दिन ध्यावो अधिक ब्यर्थ कहने से क्या मिलता
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