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भावहि पहम तञ्चं विदियं तिदियं चउत्थ पञ्चमयं । तियरणसुद्धो अप्पं अणाहि णिहणं तिवग्गहरं ॥ ११४ ।।
भाषय प्रथमं तत्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थ पञ्चमकम् । त्रिकरणशुद्धः आत्मानम् अनादि निधनं त्रिवर्गहरम् ॥
अर्थ-भो मुने ? तुम प्रथम तत्व जीव को द्वितीय तत्त्व अजीव को तृतीय तत्त्व आश्रव का चतुर्थ तत्त्व वन्ध को पञ्चम तत्त्व संवर हो तथा निर्जरा और मोक्ष तत्त्व को भावी इनका स्वरूप विचारो और गन पचन काय सम्बन्धी कृत कारित अनुमोदना को शुद्ध करते हुए अनादि निधन और विवर्ग को अर्थात् धर्म अर्थ काम कोनाशने वाले माक्ष स्वरूप आत्मा को ध्याओ।
जावण मावइ त जावण चिन्तेइ चिन्तणीयाई । तावण पावई जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥ ११५ ॥
यावन्न भावयति तत्वं यावन्न चिन्तयति चिन्तनीयानि । तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरण विवर्जितं स्थानम् ।।
अर्थ-यह जीव जब तक सप्त तत्त्वों को नहीं भावे है और जब तक चिन्तने योग्य अनुप्रेक्षादिका का नहीं चिन्तये है तब तक जरा मरण रहित स्थान को अर्थात् निर्वाण को नहीं पाये है।
पावं हवइ असेसं पुण्णपसेसं च हवइ परिणामा । परिणामादो बन्धो मोक्खोजिणसासण दिहो । ११६ पापं भवति अशेषं पुण्यमशेषं च भवति परिणामात् । परिणामाद बम्धः मोक्षो जिमशासने दृष्टः ॥
अर्थ-समस्त पाप वा समस्त पुण्य परिणामों से ही होते हैं तथा बन्ध और मोक्ष भी परिणामों से ही होता है ऐसा जिन शास्त्रो में कहा है।
निच्छत तह कसाया संजमजोगेहिं अमुहलेसेहिं । बंधइ अमुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो ॥ १७ ॥
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