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( ८६ ) अर्थ-श्रुतज्ञान रूपी जल को पीकर जीव सिद्ध होते हैं, और तृषा (विषयाभिलाषा ) दाह ( संताप ) शोष ( रसादिहानि ) जो कठिनता से नाश होने योग्य है इन से रहित हो जाते हैं तीन लोक के चूड़ामणि और शिवालय ( मुक्त स्थान ) के निवासी होते हैं ।
दसदस दोइ परीसह सहहिमुणी सयलकाल कारण । सुत्तेणं अय्यमत्तो संजयघादं पमोत्तूण ॥१४॥ दशदशहौसुपरीषहा सहस्व मुने सकलकाल कायेन ।
सूत्रेण अप्रमतः संयमघातं प्रमोच्य ।।
अर्थ-भो मुने ? तुम प्रमाद ( कषायादि ) रहित होते हुवे जिन सूत्रों के अनुकूल सर्वकाल संयम के घात करने वाली बातों का छोड़ कर पाईस परीषाहों को काया से सहो।
जहपच्छरोण भिजइ परिटिओ दीहकाल मुदएण। तह साहुण विभिन्जइ उवसग्ग परीमहहिंतो ॥९॥
यथा प्रस्तरो न मिद्यते परिस्थितो दीर्घकल उदकेन । ___ तथा साधुने विभिद्यते उपसर्ग परीषहेभ्यः ॥
अर्थ-जैसे पत्थर बहुत काल पानी में पड़ा हुवा भी पानी से गीला नहीं होता है, तैसे ही रत्नत्रय के धारक साधु उपसर्ग और परीषहाओं से क्षोभित नहीं होते हैं।
भावहि अणुपेक्खाओ अवरेपण वीस भावणा भावि । भावरहिएण किंपुण वाहर लिङ्गेण कायव्वं ॥१६॥
भावय अनुप्रेक्षा अपरा पञ्चविंशति भावना मावय । भावरहितेन किंपुनः वहिलिङ्गेन कार्यम् ॥ अर्थ-भो साधो ? तुम अनित्यादि १२ भावनाओं को भावो, और पच्चीस भावनाओं को ध्यावो, भाव रहित वाह्य लिङ्ग कर क्या होता है अर्थात कुछ नहीं हो सक्ता
सव्व विरओवि भावहि णवय पयत्थाइ सत्ततच्चाई। जीवसमासाई मुणी चउदश गुणठाण णामाई।। ९७॥
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