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( ७६ )
जीवो जिनप्रज्ञप्तः ज्ञानस्वभाश्च चेतना सहितः । सजीव ज्ञातव्य कर्मक्षय कारणनिमित्तः ॥
अर्थ - जीव ज्ञान स्वभाव वाला चेतना सहित है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है, ऐसाही जीव है ऐसी भावना कर्मों के क्षय करने का कारण है ।
जेसिं जीवसहावो णच्छि अभावोय सव्वहा तच्छ । ते होंति भिन्न देहा सिद्भा वचिगोचर मतीदा ।। ६३ ।। येषां जीवस्वभाव नास्ति अभावश्च सर्वथा तत्र ।
ते भवन्ति भिन्नदेहा सिद्धा वचोगोचरातीताः ॥
अर्थ - जिन भव्य जीवों के आत्मा का अस्तित्व है, सर्वथा अभाव स्वरूप नहीं है, ते पुरुषही शरीर आदि से भिन्न होते हुवे सिद्ध होते हैं, वे सिद्धात्मा वचन के गोचर नहीं हैं, अर्थात् उनका गुण बचनों से बर्णन नहीं किया जा सक्ता |
अरस मरुव मगन्धं अव्वभं चेयणा गुण मसदं । जाण मलिङ्गग्गहणं जीव मणिद्दिट्ठ संहाणं ॥ ६४ ॥ अरसमरुपमगन्धम्-अव्यक्तं चेतनागुण समृद्धम् | जानीहि अलिङ्गप्रहणं जीव मनिर्दिष्ट संस्थाना ॥
अर्थ - भो मुने ? तुम आत्मा का स्वरूप ऐसा जानो कि वह रस रूप और गन्ध से रहित है, अव्यक्त (इन्द्रियों के अगोचर ) है चेतनागुणकर समृद्ध ( परिणत ) है जिसमें कोई लिंग (स्त्रीलिंग पुलिंगि नपुंसक लिंग ) नहीं है और न कोई जिसका संस्थान (आकार) है |
भावहि पंच पयारं गाणं अण्णाण णासणं सिग्घं । भावण भावय सहिओ दिवसि वसुद्द भायणो होई ॥६५ || भावय पश्ञ्चप्रकारं ज्ञानम् अज्ञाननासनं शीघ्रम् । भावना भावित सहित: दिवशिवसुखभाजनं भवति ॥ अर्थ - तुम उस पांच प्रकार के ज्ञान को अर्थात् मति श्रुत
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