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( ७९ ) येरागसंगयुक्ता जिनभावन रहितद्रव्यनिग्रन्थाः । __ न लभन्ते ते समाधि बोधि जिनशांसने बिमले ॥
अर्थ-जो रागादिक अन्तरङ्ग परिग्रह कर सहित है और जिन भावना रहित द्रव्य लिङ्ग को धार कर निर्ग्रन्थ बनते हैं वे इस निर्मल ( निर्दोष ) जिन शासन में समाधि ( उत्तम ध्यान) और बोधि ( रत्नत्रय ) को नहीं पाते हैं।
भावेण होइ णग्गे मिच्छत्ताइंय दोस चइऊण । पच्छादव्वेण मुाण पयडदिलिंगं जिणाणाए ।।७।।
भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादीश्चदोषान् त्यक्त्वा । पश्चाद् द्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिङ्गं जिनाज्ञया ।
अर्थ-मुनि प्रथम मिथ्यात्वादि दोषों को त्याग कर भाव ( अन्तरंग) से नग्न होवे, पीछे जिन आज्ञा के अनुसार नग्न स्वरूप लिंग को प्रकट करै।
भावार्थ-पहले अंतरंग परिग्रह को त्याग कर अंतरंग को नग्न करै पीछे शरीर को नंगा करै---
भावोवि दिव्व सिव सुख भायणो भाववजिओसमणो। कम्ममल मलिण चिंत्तो तिरियालय भायणो पावो ॥४॥
भावापि दिव्यशिव सुख भाजनं भाववर्जितः श्रमणः । कर्म मलमलिन चित्तः तिर्यगालय भाजनं पापः ।
अर्थ-भाव लिंग ही दिव्य ( स्वर्ग ) और शिव सुख का पात्र होता है। और जो भाव रहित मुनि है उसका चित कर्ममल कर मलिन है वह पापाश्रव करता हुवा तिर्यच्च गति का पात्र होता है।
खयरामरमणुयाणं अंजलिमालाहिंसंथुया विउला । चकहर रायलच्छी लब्भइ वोहि सभावेण ॥७॥
खचरामरमनुजानाम् अञ्जुलिमालामिः संस्तुताविपुला । चक्रधरराज लक्ष्मीः लभ्यते बोधि स्व भावेन ।। अर्थ-आत्मीक भावों के निमित्त से यह जीव चक्रवर्ती की
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