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( ६७ ) - अर्थ-तुमने ऐसे उदर में पूरे नौ २ दश २ महीने अनन्तवार निवास किया । जिस में पित्त आंतड़ी मूत्र फेफस (जो रुधिर बिना मेदा के फूल जाता है) कालिज (रुधिर विकृति ) खरिस ( श्लेष्मा) और क्रमि (लट सदृशजन्तु ) समूह विद्यमान हैं।
दिय संगडिय मसणं आहारियमाय भुत्तमण्णंते । छबिखरसाण मञ्झे जठरे बसिप्रोसि जणणाए ॥४०॥ द्विज शृङ्गस्थित मशन माहृत्य मातृभुक्तमन्नन्ते ।
छर्दिखरसयोर्मध्ये जठरे उषितोस जनन्याः ॥ अर्थ-तुमने माता के गर्भ में छर्दि (माता कर खाया हुआ झूठा अन्न ) और खरिस (अपक्व और मल रुधिर से मिली हुई वस्तु) के मध्य निवास किया जहां पर माता कर खाये हुवे अन्न को जो कि उसके दांतों के अग्र भागों से चबाया गया है खाया।
भावार्थ-जो अन्न माता ने अपने दांतो से चबायकर निगला हुवा है उस उच्छिष्ट को खाकर गर्भाशय में मल और रुधिर में लिपटे हुवे संकुचित होकर वसे हो।
सिमु कालेय अयाणे असुई मज्झम्मिलोलिओसि तुमं । असुई असिया बहुशो मुणिवर वालत्तपत्तेण ॥४१॥ शिशुकाले घ अज्ञाने अशुनिमध्ये लुठितोसि त्वम् ।
अशुचिः भशिता बहुशः मुनिवर वालत्व प्राप्तेन ॥
अर्थ--भो मुनिवर अज्ञानमयी वाल्य अवस्था में तुम अपवित्र स्थानों में लोटे । और बालपने में बहुत बार अनेक भवों में अशुचि विष्टा आदि खा चुके हो। ..संसहि सुक्क सोणिय पित्तं तसवत्त कुणिम दुग्गन्धं ।
खरिस वस पूइ खिब्भि स परियं चिन्तेहि देह उडं ॥४२॥ मांसास्थिशुक्रश्रोणित पित्तान्त्र श्रवत् कुणिम दुर्गन्धम् ।
खरिस वशापूति किल्विष भरितं चिन्तय देहुकुटम् ॥ अर्थ--भो यतीश्वर ? इस देह कुटी के स्वरूप को विचारो,
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