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भावोहि पढमलिंग ण दवलिंगं च जाण परमच्छं । भावो कारणभूदो गुण दोसाणं जिणा विति ॥ २ ॥
भावोहि प्रथमालिङ्गं न द्रव्यलिङ्गं च जानत परमार्थम् ।
भावःकारणभूतः गुणदोषाणां जिना विंदन्ति ॥ अर्थ-जिन दीक्षा का प्रथम चिह्न भाव ही है द्रव्य लिङ्ग को परमार्थ भूत मत जानो क्योंकि गुण और दोषों का कारण भाव ( परिणाम ) ही है ऐसा जिनेन्द्र देव जानें हैं कहें हैं।
भाव विमुद्धणिमित्तं वाहिरगंथस्स कीरए चाओ। चहिर चाओ विअलो अन्भन्तर गंथ जुत्तस्स ॥३॥
भाव विशुद्धि निमित्तं वाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः । वाह्मत्यागो विफलः अम्यन्तर ग्रन्थ युक्तस्य ।
अर्थ-आत्मीक भावों की विशुद्धि (निर्मलता) के लिये वाह्य परिग्रहों ( वस्त्रांदिकों) का त्याग किया जाता है, जो अभ्यन्तर परिग्रह ( रागादिभाव ) कर सहित है तिसके वाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है। ..
भावरहिओ ण सिज्झइ जइवितवंचरइ कोडि कोंडी ओ । जम्मतराइवहुसो लंवियहच्छो गलिय वच्छो ॥ ४ ॥ भावरहितो न सिद्धन्ति यद्यपि तपश्चरति कोट कोटी।
जन्मान्तराणि वहुशः लम्बितहस्तो गलितवस्त्रः॥
अर्थ- आत्म स्वरुप की भावना रहित जो कोई पुरुष भुजाओं को लम्बा छोडकर, और वस्त्र त्याग कर अर्थात वाह्य दिगम्बर भेष धारण कर कोटा कोटी जन्मों में भी बहुत प्रकार तपश्चरण करै तो भी सिद्धि को नहीं पाता है। अर्थात भावलिङ्ग ही मोक्ष का कारण है।
परिणामम्मि असुदे गंथे मुचेइ बाहरेय जइ । ' वाहिर गंथञ्चाओ भाव विहूणस्स किं कुणइ ॥५॥ .
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