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ज्वरादिक व्याधियों का होना सहज दुःख है, शरीर के छेदने भेदने भादि से जो दुःख हो उनको शारीरक कहते हैं । इत्यादिक अनेक दुःख मनुष्य भव में प्राप्त होते हैं इससे मनुष्य गति भी दुःख से खाली नहीं है।
मुरणिकएमु सुरच्छर विओय काले य माणसं तिव्वं । संपत्तोसि महाजस दुःखं मुह भावणारहिओ ॥१२॥ सुरनिलयेषु मुराप्सरा वियोग काले च मानसं तीब्रम् । संप्राप्तासि महायशः दुःखं शुम भावना रहितः ।।
अर्थ-देवलोक में भी प्रियतम देवता(प्यारीदेवी वाप्यारादेव) के वियोग समय का दुःख और बड़ी ऋद्धि धारी इन्द्रादिक देवताओं की विभूति देख कर आप को हीन मानना ऐसा ती मानसीक दुःख शुभ भावना के बिना पाया।
कंदप्पमाइयाओ पंचविअमुहादि भावणाईय । भाऊण दम्वलिंगी पणिदेवो दिवे जाउ ॥१३॥
कान्दी त्यादयः पञ्चअपि अशुम भावना च । भावयित्वा द्रव्यलिङ्गी प्रहीणदेवः दिविजावः ॥
अर्थ-हे भव्य ? तू द्रव्यलिङ्गी मुनि होकर कन्दी आदि पांच अशुभ भावनाओं को भाय कर स्वर्ग में नीच देव हुवा।
पासच्छ भावणाओ अणाय कालं अणेय वारायो । भाऊण दुईयत्तो कुभावणा भाववीएहिं ॥१४॥ पार्श्वस्थभावना अनादिकालम् अनेकवारान् ।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावना भाववीजैः ।। अर्थ-पार्श्वस्थ आदिक भावनाओं को भाय कर अनादि काल से कुभावनाओं के परिणामरुपी वीजों से अनेक बार बहुत दुःख पाये।
. भावार्थ-जो वसतिका बनाय भाजीविका करै और अपने को मुनि प्रसिद्ध करे सो पाश्वस्थ मुनि है, जो कषायवान होकर
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