Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 65
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अर्थ-भो मुनिप्रवर (मुनिप्रधान) आप अपवित्र, घिणावणी • पाप के समान अप्रिय, अत्यन्त मलीन ऐसी अनेक माताओं के गर्भ में बहुत काल रहे हो। पीओसि यणछीरं अणंत जम्मतराय जणणीणं। अण्णण्णाण महाजस सायर सलिलादु अहियतरं ॥१८॥ पीतोसि स्तनक्षीरं अनन्तजन्मान्तरेषु जननीनाम् । अन्यान्यासाम् महायशः सागरसलिलात्तु अधिकतरम् ॥ अर्थ-हे यशस्वी मुनिवर आपने अनन्त जन्मों में न्यारी न्यारी मताओं के स्तनोंका दुग्ध इतना पीया जो यदि एकत्र किया जाय तो समुद्र के पानी से बहुत अधिक होजावे। तुह मरणे दुक्खेण अण्णण्णाणं अणेय जणणीणं । रुग्णाण णयणणीरं सायर सलिलादु अहियतरं ॥१९॥ तव मरणे दुःखेन अन्यान्यासाम अनेक जननीनाम् । रुदितानां नयन नीरं सागर सलिलात्तु (त् )अधिकतरम् ।। अर्थ-तेरे मरने के दुःख में अनेक जन्म की न्यारी न्यारी माताओं के रोने से जो आंखों का पानी गया यदि वह इकट्ठा किया जावै तो समुद्र के जल से अधिक होजावे भवसायरे अणते छिण्णुज्झिय केसणहरणालथि । पुंजइ जइ कोवि जिय हवदि य गिरिसमाधियारासी ॥२०॥ भवसागरे अनन्त छिन्नानि उज्झितानि केशनखनालास्थीनि । पुञ्जयति यदि कश्चित् एव भवति च गिरिसमधिका राशिः ॥ अर्थ-इस अनन्त संसार समुद्र में तुमारे शरीरों के केश नख नाल अस्थि ( हड्डी ) इतने कटे तथा छूटे जो प्रत्येक का पुञ्ज (टेर) किया जाय तो सुमेर पर्वत से भी अधिक ऊंचे ढेर हो जावें । जल थल सिह पवणंवर गिरिसरिदार तरुवणाइ सव्वत्तो। वसिओसि चिरं कालं तिहुवण मज्झे अणपवसो ॥२१॥ For Private And Personal Use Only

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