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परिणामे अशुद्धे ग्रन्थान मुञ्चति वाह्यान यदि । बाह्यग्रन्थ त्यागः भाव विहीनस्स किं करोति ॥
अर्थ-अन्तरङ्ग परिणामों के मलिन होने पर जो वाह्यपरिप्रह (वस्त्रादिको ) को छोड़े है सो वाह्य परिग्रह का त्याग उस भावहीन मुनि के वास्ते क्या करे है ? अर्थात निष्फल है।
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहियेण । पथिय शिवपुरि पथं जिण उवइदं पयत्तेण ॥ ६ ॥
जानीहि मावं प्रथमं किं ते लिङ्गेण भावरहितेन । पथिक शिवपुरीपथः जिनेनो पदिष्टः प्रयत्नेन ॥
अर्थ-हे भव्य ? भाव ( अन्तरङ्ग परिणामों की शुद्धता ) को मुख्य (प्रधान) जानो तुम्हारे भावरहित वाह्य लिङ्गकर क्या फल है? (कुछ नहीं है) पथिक अर्थात हे मुसाफिर मोक्ष पुरी का मार्ग जिनेंद्र देवने भाव ही उपदेशा है इस कारण प्रयत्न से इसको ग्रहण करो।
भावरहिएण स उरिस अणाइ कालं अणंत संसारे । गहि उज्झयाओ बहुसो वाहिर णिग्गंथ रुवाइ ॥७॥ __ भावरहितेन सत्पुरुष अनादिकालम् अनन्त संसारे ।
ग्रहीता उज्झिता बहुशः वाह्यनिग्रन्थरुपाः ।। ___अर्थ-हे सत्पुरुष तुमने अनादि काल से इस अनन्त संसार में बहुत बार भावलिङ्ग विना वाह्य निर्ग्रन्थ रुप को धारण किया और छोडा परन्तु जैसे के तैसै ही संसारी बने रहे।
भीसण णरय गईए तिरयगईए कुदेव मणुगइ ए । पत्तो सित्ती दुक्खं भावहि जिण भावणा जीव ।। ८॥
भीषण नरकगतौ तिर्यग्गतौ कुदेव मनुष्यगतौ । प्राप्तोसि तीब्र दुःखं भावय जिन भावनां जीव ॥
अर्थ-हे जीव ! तुमने भावना विना भयानक नरक गति में, तियञ्च गति में, कुदेव और कुमानुष गति में अत्यन्त (ती) दुःखें को पाया है इससे तुम जिन भावना को भावों चिन्तवो।
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