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( ५३ )
तव वय गुणेहि सुद्धा संजमसम्मत्तगुण विसृद्धाय । सुद्धगुणहि सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५८ ॥ तपात्रत गुणैः शुद्धा संयम सम्यक्त्वगुण विशुद्धा च । शुद्धगुणैः शुद्धो प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥
अर्थ – जो १२ तप ५ व्रत और ८४००००० उत्तर गुणों कर शुद्ध हो, संयम (इन्द्रिय संयम प्राणसंयम ) और सम्यग्दर्शन कर विशुद्ध हो तथा प्रव्रज्या के जो गुणं और कहे थे तिन कर सहित हो ऐसी प्रव्रज्या जिन शासन में कही है।
एवं आयत्तगुण पज्जत्ता बहुविसुद्ध सम्मत्ते । णिग्गंथे जिनमग्गे संखे वेण जहा खादं ||५९॥
एवम् आत्मतत्वगुण-पर्याप्ता वहु विशुद्ध सम्यक्त्वे । निर्मन्थे जिनमार्ग संक्षेपेण यथाख्यातम् ॥
अर्थ - अत्यन्त निर्मल है सम्यग्दर्शन जिसमें जिन मार्ग में ऐसी निर्मन्थ अवस्था जो आत्म तत्व की भावना में पूर्ण हो ऐसी प्रव्रज्या है तिसको में ने संक्षेप से वर्णन किया है ।
रूपत्थं सुद्धच्छं जिमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । भव्वजण वोहणत्थं छक्काय हियंकरं उत्तं ॥ ६ ॥ रूपस्थं शुद्धार्थं जिनमार्गे जिनवरै यथा मणितम् | भव्य जन वोधनार्थं पटुकाय हितकरम् उक्तम् ॥
अर्थ- शुद्ध है अर्थ जिसमें ऐसे निर्ग्रन्थ स्वरुप के आच
रणों का वर्णन जैसा जिनेन्द्र देवने जिनमार्ग में किया है तैसाही पटकायिक जीवों के लिये हितकारी मार्ग निकट भव्य जनों को संबोधन के लिये मैं ने कहा है ।
सद्द विया हुआ भासात्ते जंजिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीमेणय भद्दवाहुस्स ॥ ६१ ॥ शब्द विकारो भूतः भाषा सूतेषू यत् जिनेन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रवाहो ||
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