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भावार्थ-वर्षभ नाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिक, अप्राप्तासृपाटिक इनमें से किसी एक संहनन वाले भव्यजीवों के जिनदीक्षा होती है। इससे हे भव्यो इस पञ्चम काल में इसको कर्म क्षय का कारण जान अङ्गीकार करो ।
तिल तुस मत्त णिमित्तं समवाहिर गंथ संगहो णच्छि । पावज हवइ एसा जह भणिया सव्व दरसीहि ॥१५॥ तिलतुषमात्र निमित्त समं वाह्य प्रन्थ संग्रहो नास्ति ।
प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्व दर्शिभिः॥
अर्थ-जहां तिल के तुष मात्र (छिलके के वरावर ) भी वाह्य परिग्रह नहीं है ऐसी यथा जात प्रव्रज्या सर्व देवने कही है।
उपसग्ग परीसह सहा णिज्जणदेसेहि णिच्च अच्छेइ । सिल कट्टे भूमि तले सब्बे आरुहइ सव्व च्छ ॥५६॥
उपसर्ग परीषहसहा निर्जन देश नित्यं तिष्ठति । शिलायां काष्टे भूमि तले सर्वे अरोहयति सर्वत्र ।
अर्थ-उपसर्ग और परीषह समभाव से सही जाती हैं निर्जन शुन्य वनादिक शुद्ध स्थानों में निरन्तर निवास करते हैं शिला पर काष्ट पर और भूमि तल में सर्वत्र तिष्टे है शयन करते हैं, बैठे हैं। सो प्रव्रज्या है।
पमुमहिलं सह संगं कुंसालसंगंणकुणइ विकहाओ। सज्झाण झाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५७॥ - पशु महिलापण्ड संग कुशील संगं न करोति विकथाः ।
स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ अर्थ-जहां पशु, स्त्री और नपुंसको का संग (साथ में रहना) और कुशील (व्यभिचारियों के साथ रहने वाले ) जनों का संग नहीं करते है तथा विकथा (राजकथा स्त्री कया भोजन कथा चौर कथा) महीं करते हैं, किंतु स्वाध्याय और ध्यान में लगे हैं ऐसी प्रवज्या जिनागम में कही है।
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