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( २६ ) अर्थ-भो भव्यात्मन् ? तुम परिग्रह में त्याग परिणाम कर के जिन दीक्षा में प्रवर्ती और संयम के भावों से उत्तम तपश्चरण में प्रवृत्ति करो जिस से ममतरहित वीतरागता होने पर तुम्हारे विशुद्ध धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान हो।
पिच्छा दंसणमग्गे मलिणे अण्णाण मोहदोसहि । वज्झति मूढीवा मिच्छंता बुद्धि उदएण ॥१७॥ मिथ्यादर्शन मार्गे मलिने ऽज्ञानमोह दोषाभ्याम् ।
वर्तन्ते मूढ नीवाः मिथ्यात्वा बुद्धयुदये न ॥ __अर्थ-मूढ जीव मिथ्यात्व और अज्ञान के उदय से मिथ्या दर्शन मार्ग में प्रवर्तते हैं; वह मिथ्यादर्शन अज्ञान और मोह के दोषों से मलिन है अर्थात् जिनेन्द्र भाषितं धर्म के सिवाय अन्य धर्मों में अशाम और मोह का दोष है--
सम्मइंसण पस्साद जाणादि गाणेण दव्वपज्जाया । सम्मेण सहहाद परिहरदि चरित्त जे दोसे ॥१८॥ सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्तवेन श्रद्दधाति परिहरति चरित्रजान् दोषान् ॥
अर्थ-यह जीव दर्शन से सत्तामात्र वस्तु को जान है, ज्ञान से द्रव्य और उनकी पर्यायों को जाने है और सम्यक्तव से श्रद्धान करता है औ चारित्र से उत्पन्न हुवे दोषों को छोड़ता है।
एएतिण्ण विभावा हवांत जीवस्स मोहरहियस्स । णियगुण आराहतो अचिरेण विकम्म परिहरई ॥१९॥
एते त्रयोपि भावा भवन्ति जीवस्य मोहरहितस्य । निजगुणम् आराधयन् अचिरेणापि कर्म परिहरति ॥
अर्थ-जो मिथ्यात्व रहित है उस ही जीव के सम्यग दर्शन शान चारित्र तीनों भाव होते हैं। और वही अपने आत्मीक गुणों को अराधता हुआ थोड़े काल में ही कर्मो का नाश करता है।
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