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अर्थ-व्रत (महाव्रत ) और सम्यकत्व में शुद्ध पाञ्च इन्द्रियों के संयम सहित, निरपेक्ष अर्थात् इस लोक और परलोक सम्बन्धी विषय वांछा रहित ऐसे शुद्ध आत्म स्वरूप तीर्थ में दीक्षारुपी उत्तम स्नान से पवित्र होवो।
जणिम्मलं सुधम्म सम्मत्तं संजमं तवं गाणं । तं तिच्छं जिणमग्गे हवेइ यदि संतभावेण ॥ २७ ॥ ___य निर्मल सुधर्म सम्यक्त्वं संयम तपः ज्ञानं ।
त तीथ जिनमार्गे भवति यदि शान्तमावेन ।।
अर्थ-निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म, सम्यग्दर्शन, संयम द्वादश प्रकार का तप, सम्यगज्ञान, यह तीर्थ जिन मार्ग में हैं यदि शान्त भाव अर्थात् कषाय रहित भाव से सेवन किये जाँय तो यह जैन धर्म के तीर्थ हैं।
णामवणेहिंय संदध्वेभावेहि सगुणपज्जाया। चउणागदि संपदिमं भावा भावंति अरहतं ॥ २८ ॥ नाम स्थापनायां हि च संद्रव्ये भावे हि सगुणपर्यायाः।
च्यवणागति संपदइमेभावाः भावयन्ति अर्हन्तम् ॥ अर्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, इनसे गुणपर्याय सहित अर्हन्त जाने जाते हैं तथा च्यवण अर्थात अवतार लेना आगति अर्थात भरतादिक क्षेत्रों में आना, सम्पत् अर्थात पंचकल्याणकोंका होना यह सब अर्हन्तपने को मालूम कराते हैं।
दसण अणंत गाणे मोक्खो णहह कम्मबंधेण । णिरुवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होई ॥ २९ ॥ दर्शने अनन्ते ज्ञाने मोक्षोनष्टाष्टकर्मबन्धेन ।
निरूपमगुणमरूढः अहंन् इदृशो भवति । अर्थ ~अनन्तदर्शन और अनन्त ज्ञान के विद्यमान होने पर अष्टकर्मों के वन्धका नाश होनेसे मानो मोक्षही हो गये हैं और
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