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( ४५ )
अर्थ – तेरह में गुण स्थान में संयोग केवली अर्हन्त होते हैं । जिन के ३४ अतिशय रूपी गुण और ८ प्रातिहार्य होते हैं ।
गइ इंदियं च काए जोए वेए कषाय णाणेय ।
संयम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्तसण्णि आहारो ||३३|| गतिः इन्द्रियं च कायः योगः वेद कषाय ज्ञान च । संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यकत्व संज्ञि अहार ॥ अर्थ - गति ४ इन्द्रिय ५ काय ६ योग्य १५ वेद अर्थात् लिङ्ग३ कषाय २५ शान ( कुशान३ सहित ) ८ संयम (असंयमादिक सहित ) ७ दर्शन ४ लेश्या ६ भव्यत्व ( अभव्यत्वसहित ) २ संशी ( असंज्ञीसहित ) २ आहार ( अनाहरकसहित ) २ इस प्रकार १४ मार्गणास्थान हैं मार्गणा नाम तलाश करने का है, चारों गतियों में से प्रत्येक मार्गणा में मालूम करना चाहिये कि प्रत्येक मार्गणा के भेदों में अर्हत भगवान के कौन भेद होता है जैसे कि गतिमार्गणाके चार भेद हैं उनमें से अर्हतभगवान की मनुष्य गति होती है। इस प्रकार सर्बही मार्गणा में खोज करना ।
आहारीय सरीरो इंदियमण आण पाण भासाय | पज्जतगुण समिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरिहो || ३४ ॥
आहारः च शरीरम् इन्द्रियम् मनः आनप्राणः भाषा च । पर्याप्तिगुणसमृद्धः उत्तमदेवो भवति अर्हन् ।
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अर्थ – आहार पर्याप्त १ शरीर पर्याप्ति २ इन्द्रियपर्याप्ति ३ स्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ४ भाषा पर्याप्ति ५ मन पर्याप्ति ६ इन सहित अर्हन्त उत्तम देव होते हैं।
भावार्थ- परन्तु जिस प्रकार साधारण मनुष्य आहार लेते हैं इस प्रकार अर्हन्त आहार नहीं लेते हैं बल्कि शरीर में नवीन परमाणुओं का आना जिनको नोकर्म कहते हैं वह ही उन का आहार है ।
पंचवि इंदियपाणा मणवयकारण तिष्णिवलपाणा । आणप्पाणपाणा आउग पाणेण दहपाणा || ३५ ॥
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