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( ४१ )
संजम संजुत्तस्मयसुझाणजोयस्स मोक्खपग्गस्स । नाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं ॥ २० ॥ संयम संयुक्तस्य च सुध्यान योगस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ॥
अर्थ - संयम सहित और उत्तम ध्यान युक्त मोक्ष मार्ग का लक्ष्य अर्थात चिन्ह शान से ही जाना जाता है इस से उस ज्ञान को जानना योग्य है ।
जहण विलहदिहुलक्खं रहिओ कंडस्स वेज्जयविहीणो । तहण विलक्खाद लक्खं अण्णाणी मोक्ख मग्गस्स ॥२१॥ यथा न विलक्षयति स्फुटं लक्ष्यं रहितः काण्डस्य वेध्यकविहीनः । तथा न विलक्षयति लक्ष्यं अज्ञानी मोक्ष मार्गस्य ॥
अर्थ - जैसे कोई पुरुष लक्ष्य विद्या अर्थात निशाने बाजी को न जानता हुवा और उसका अभ्यास न करता हुवा वाण अर्थात तीर से निशाने को नहीं पाता है तैसे ही ज्ञान रहित अज्ञानी पुरुष मोक्ष मार्ग के निशाने को अर्थात दर्शन शान धरित रूप आत्म स्वरूप को नहीं पा सकता है ।
गाणं पुरुसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो विविणय संजुत्तो । णाणेण लहदि लक्खं लक्खतो मोक्खमग्गस्स ||२२||
ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषोपि विनयसंयुक्तः । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं लक्ष्ययन मोक्षमार्गस्य ॥
अर्थ - ज्ञान पुरुष में अर्थात आत्मा में ही विद्यमान है परंतु गुरु आदिक की बिनय करने वाला भव्य पुरुष ही उसको पाता है, और उस ज्ञान से ही मोक्ष मार्ग को ध्यावताहु मोक्ष मार्ग के लक्ष्य अर्थात निशाने को पाता है ।
म धणुहं जस्सथिरं सुदगुण वाणं सु अच्छिरयणतं । परमच्छ वद्धलक्खो णवि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ॥२३॥
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