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तस्सय करहपणामं सवं पूजंच विणय वच्छल्लं । जस्यय दंसणणाणं अस्थि ध्रुवं चेयणाभावो ॥१७॥ तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वो पूजां विनय वात्सल्यं ।
यस्य च दर्शनं ज्ञानम्, अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ॥
अर्थ-जिन में दर्शन और ज्ञानमयी चेतन्य भाव निश्चल रूप विद्यमान है उन आचार्यों और उपाध्याय और सर्व साधुओं को प्रणाम करो उनकी सर्व ( अष्ट ) प्रकार पूजा करो विनय करो और वात्सल्य भाव (वैयावत्य ) करो।।
तववय गुणेहि सुद्धो जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । अरहंत मुद्दएसा दायारो दिवक्खसिक्खाया ॥१८॥ तपवितगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यकत्वम् ।
अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षायाः ॥ अर्थ-तप और ब्रत और गुणों कर शुद्ध हो, यथार्थ वस्तुस्वरूप के जानने वाला हो, शुद्वसम्यग दर्शन के स्वरूप का देखने वाला हो वह आचार्य अर्हन्त मुद्रा है।
दिढसंजममुद्दाए इंदियमुद्दा कसाय दिढमुद्दा । मुद्दा इहणाणाए जिण मुद्दाएरिसा भणिया ॥१९॥
दृढि संयम मुद्राया इन्द्रियमुद्रा कषाय दृढमुद्रा । मुद्रा इह ज्ञाने जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥
अर्थ-दृढ़ अर्थात किसी प्रकार भी चलाया हुवा न चले ऐसे संयम से जिन मुद्रा होती है, द्रव्ये न्द्रियों का संकोचना अर्थात कछवे की समान इन्द्रियों को संकोच कर स्वात्मा में स्थापित करना इन्द्रिय मुद्रा है, क्रोधादिक कषायों को दृढ़ता पूर्वक संकोचकरना, कमकरना, नाश करना कषाय मुद्रा है । शान में अपने को स्थापित करना शान मुद्रा है ऐसी जिन शास्त्र में जिन मुद्रा कही है।
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