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( ३२ ) अपरिग्गह समणुण्णे सुसहपरिसरस रुवगंधेसु । रायदोसाईणं परिहादो भावणा होति ॥३६॥
अपरिग्रह समनोसेषु शब्द स्पर्श रस रूप गन्धेषु ।
रागद्वेषादीनां परिहारो भावना मवन्ति ॥ अर्थ-शब्द स्पर्श रस रूप गन्ध चाहे मनोक्ष अर्थात मन भावने हो वा अमनोज्ञ अर्थात अप्रिय हो उनमें रागद्वेष न करना अपरिग्रह महावत की ५ भावना है।
इरि भासा एसण जासा आदाणं चेवणिक्खेवो । संजमसोहणिमित्ते रवंति जिणा पंच समदीओ ॥३७॥
ई- भाषा एषणा यासा आदानं चेव निक्षेपः। संयमशोध निमित्तं रख्यान्ति जिनाः पञ्च समितयः ।।
अर्थ--इर्यासमिति अर्थात चार हाथ आगे की भूमि को निरखते हुवे चलना १ भाषासमिति अर्थात शास्त्र के अनुसार हित मित प्रिय बचन बोलना २ एषणा समिति अर्थात शास्त्र की आज्ञानुसार दोष रहित आहार लेना ३ आदान समिति अर्थात देखकर पुस्तक कमण्डलु को उठाना ४ निक्षेपण समिति अर्थात् देखकर पुस्तक कमण्डलु का रखना ५ यह पांच समिति जिनेन्द्र देवने कही हैं ।
भव्वजण वोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं । णाणं णाणसरुपं अप्पाणं तं वियाणेह ॥३८॥
भव्यजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् ।
ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं बिजानीहि ॥ अर्थ-जिनेन्द्र देवने जैनशास्त्रों में भव्य जीवों के सम्बोधन के लिये जैसा ज्ञान और ज्ञान का स्वरूप वर्णन किया है तिसी को तुम आत्मा जानो अर्थात यह ही आत्मा का स्वरूप है।
जीवाजीवविभक्ति जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी। रायादि दोस रहिओ जिणसासण मोक्खमग्गुत्ति ॥३९॥
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