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( ३७ ) बुद्धं यत् बोधयन आत्मानं वेति अन्यं च । पञ्चमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यग्रहम् ॥
अर्थ-जो शानस्वरूप शुद्ध आत्मा को जानता हुआ अन्य जीवों को भी जानता है तथा पञ्चमहाबतो कर शुद्ध है ऐसे शानमई मुनि को तुम चैत्यग्रह जानो।
भावार्थ-जिसमें स्वपर का ज्ञाता वसै है ही चैत्यालय है। ऐसे मुनि को चैत्यग्रह कहते हैं।
इय पन्धं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्ययं तस्य । चेहरो जिणमग्गे छक्काय हियं करं भणियं ॥९॥
चैत्यं बन्धं मोक्षं दुःखं सुखं च अर्पयतः ।
चैत्यग्रहं जिनमार्गे षटकाय हितकरं भणितम् ॥ अर्थ- बन्धमोक्ष, और दुख सुख में पड़े हुवे छैकाय के जीवों का जो हित करनेवाला है उसको जैनशास्त्र में चैत्यग्रह कहा है।
भावार्थ-चैत्य नाम आत्मा का है वह वन्ध मोक्ष तथा इनके फल दुःख सुख को प्राप्त करता है । उसका शरीर जब षटकाय के जीवों का रक्षक होता है तबही उसको चैत्यग्रह (मुनि-तपस्वी-व्रती) कहते हैं। ____ अथवा चैत्य नाम शुद्धात्मा का है । उपचार से परमौदारिक शरीर सहित को भी चैत्य कहने हैं उस शरीर का स्थान समवसरण तथा उनकी प्रतिमा का स्थान जिन मन्दिर भी चैत्य ग्रह हैं। उसकी जो भक्ति करता है तिसके सातिशय पुन्य वन्ध होता है क्रम से मोक्ष का पात्र बनता है उन चैत्यग्रहों के विद्यमान होते अहिंसादि धर्मका उपदेश होता है इससे वे षट्काय के हितकारी हैं।
सपराजंगमदेहा दंसणणाणेण शुद्धचरणाणं । निग्गन्थवीयराया जिणमग्गे एरिसापडिमा ॥१०॥
स्वपराजङ्गमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निगेन्थावीतरागा जिनमार्गे इदृशी प्रतिमा ॥
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