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( २७ )
संखिञ्ज मसंखिज्जं गुणं व संसारिमेरुमित्ताणं । सम्पत्त मणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ २०॥ संख्येयम संख्येयं गुणं संसारिमेरु मात्रं णं । सम्यत्कमनुचरन्तः कुर्वन्ति दुखक्षयं धीराः ॥
अर्थ – सम्यक्त्व को पालने वाले धीर पुरुष जब तक संसार रहता है अर्थात् जब तक मुक्ति प्राप्त नहीं होती है तब तक संख्यात गुणी तथा असंख्यात गुणी कर्मो की निर्जरा करते हैं और दुःखों को क्षेय करते हैं ।
दुविहं संयम चरणं सायारं तह हवे निरायारं । सायारं सग्गंथे परिगह रहिये निरायारं ॥ २१ ॥
द्विविधं संयम चरणं सागारं तथा भवत् निरागारम् । सागारं सग्रन्थे परिग्रह रहिते निरागारम् ॥
अर्थ- संयमाचरण चरित्र दो प्रकार है । सागार ( श्रावक धर्म) और अनागार ( मुनिधर्म) सागार तो परिग्रह सहित ग्रहस्थों होता है और निरागार, परिग्रहरहित मुनियों के होता है । दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त राय भत्तेय ।
भारम्भ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ विरदोय देशविरदोय २२ दर्शन-व्रत- सामायिक प्रोषध. सचित्तरात्रिभुक्ति त्यागः । ब्रह्मचर्यम्-आरम्भ परिग्रहानुमति उद्दिष्टविरतः च देशविरतश्च ॥ अर्थ - श्रावकों के यह ११ चरित्र हैं इनके धारण करने वाले श्रावक भी ११ प्रकार के होते हैं । दर्शन १ व्रत २ सामायिक ३ प्रोषधोपवास ४ सचित्त त्याग ५ रात्रिभुक्ति त्याग ६ ब्रह्मचर्य ७ आरम्भविरति ८ परिग्रहविरति ९ अनुमतिविरति १० उद्दिष्टविरति ११ यह श्रावक की ११ प्रतिमा कहलाती हैं ।
पश्चेवणुव्वयाइं गुणव्वयाई हवन्ति तहतिष्णि । सिक्खावय चचारि सञ्जय चरणं च सायारं ||२३||
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