Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २९ ) अर्थ-सामायिक अर्थात रागद्वेष को त्याग कर ग्रहारम्भ सम्बन्धी सर्व प्रकार की पापक्रिया से निवृत्त होकर एकान्त स्थान में वैठकर अपने आत्मीक स्वरूप का चिंतवन करना, वा पञ्चपरमेष्टी की भक्ति का पाठ पढ़ना उनकी बन्दना करना यह प्रथम शिक्षाव्रत है प्रोषधोपवास अर्थात अष्टमी चतुर्दशी के दिन चार प्रकार के आहार का छोडना अथवा जलमात्र ही ग्रहण करना वा अन्न को एकवार ग्रहण करना यह उत्तम, मध्यम, जघन्य भेदवाला दूसरा शिक्षावत है अतिथि पूजा अर्थात मुनि या उत्तम श्रावको को नवधा भक्ति कर आहार देना यह तीसरा शिक्षाव्रत है । अन्त संलेखना अर्थात मरण समय समाधि मरण करना यह चौथा शिक्षावत है। इस प्रकार यह चार शिक्षाव्रत है। एवं सावय धम्मं संजम चरणं उदेसियं सयलं । सुद्धं संजम चरणं जइ धम्मं निक्कलं वोच्छे ॥२७॥ एवं श्रावक धर्मम् संयम चरणम् उपदेशितम् । शुद्धं संयम चरणं यतिधर्म निष्कलं वक्ष्ये ॥ अर्थ-इस प्रकार श्रावक धर्म सम्बन्धी संयमाचरण का उपदेश किया अवशुद्ध संयमाचरण का वर्णन करता हूं जोकि यतीश्वरी का धर्म है और पूर्णरुप है । अर्थात जो सकल चारित्र है। पंचिंदिय संवरणं पंचवया पंचविंश किरियासु । पंचसमिदि तियगुत्ति संजम चरणं निरायारं ॥२८॥ पञ्चन्द्रिय संवरणं पञ्चव्रता पञ्चविंशति क्रियासु । पञ्चसमितयः तिस्रोगुप्तयः संयम चरणं निरागारम् ॥ अर्थ-पांचो इन्द्रियों को संबर अर्थात वश करना पांच महाव्रत जोकि पचीस क्रियाओं के होते होए ही होते हैं, पांच समिति और तीन गुप्ति, यह अनागरों का संयमा चरण है अर्थात मुनिधर्म है। अमणुण्णेय मणुण्णो सजीवदव्वे अजीवदव्वे य । न करेय राग दो से पंचिंदिय संवरो भणिओ ॥२९॥ For Private And Personal Use Only

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