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( २४ ) सम्मत चरणं भट्ठा संयम चरणं चरन्ति जेवि णरा। अण्णाण णाण मूढा तहविण पावन्ति णिव्वाणं ॥१०॥
सम्यक्त्व चरण मृष्टा संयम चरणं चरन्ति येपि नराः।
अज्ञान ज्ञान मूढ़। तथापि न प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥
अर्थ-जो पुरुष सम्यक्त्व चरण चारित्र से भ्रष्ट हैं अर्थात जिनको सच्चा श्रद्धान नहीं है परन्तु संयम पालते हैं तो भी वे अज्ञानी मूढ़ दृष्टि हैं और निर्वाण को नहीं प्राप्त कर सक्ते हैं।
वच्छल्लं विणयेणय अणुकम्पाए मुदाणदक्षाए । मग्गगुण संसणाए अवगृहण रक्खणा एं य ।। ११ ।। एए हि लक्खणेहिय लक्खिज्जइ अज्जवेहि भावेहि । जीवो आराहन्तो जिण सम्मतं अमोहेण ॥ १२ ॥
वात्सल्यं विनयेन च अनुकम्पया सुदानदक्षया । मार्गगुणसंशनया उपगृहन रक्षणेण च ।। एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आजवैः भावैः ।
जीव आराधयन् जिन सम्यक्त्वम् अमोहेन ॥ अर्थ-जो जीव जिनेन्द्र के सम्यक्त्व को मिथ्यात्व रहित आराधन ( ग्रहण-सेवन ) करता है वह इन लक्षणों से जाना जाय है। वात्सल्य, साधर्मियों से ऐसी प्रीति जैसी गाय अपने बच्चे से करती है, विनय अर्थात ज्ञान चारित्र में बड़े पुरुषों का आदर नम्रता पूर्वक स्वागत करना प्रणाम आदि करना, अनुकम्पा अर्थात दुःखित जीवों पर करुणा परिणाम रखना और उनको यथा योग्य दान देना मार्गगुणशंसा अर्थात मोक्षमार्ग की प्रशंसा करना, उपगृहन अर्थात धार्मिक पुरुषों के दोषों को प्रकट न करना, रक्षण अर्थात धर्म से चिगते हुवो को स्थिर करना, और आर्जव अर्थात नि:कपट परिणाम इन लक्षणों से सम्यक्त्व का अस्तित्व जाना जाता है।
उच्छाहभावण सूं पसंस सेवा कुदंक्षणे सद्धा । अण्णाण मोह मग्गो कुव्वन्तो जहदि जिणसम्मं ॥ १३ ॥
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