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( १८ ) पंच महव्वय जुत्तो तिहिगुत्तिहि जो संसजदो होई । निग्गंथ मोक्खमम्गो सो होदिहुं वेदणिज्जोय ॥२०॥
पञ्चमहाव्रत युक्तः तिसृमिः गुप्तिभिः यः स संयतः मवति ।
निर्ग्रन्थ मोक्षमार्गः समवति स्फुटं बन्दनीयः च ।। अर्थ-जो पंच महाव्रत और तीन गुप्ति ( मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति ) सहित है वह ही संयत अर्थात् संयम धारी है। निम्रन्थ ही मोक्ष मार्ग है, और वह ही बन्दने योग्य है ॥
दुहयं च वुत्त लिङ्ग उकिटं अवर सावयाणं च । भिक्खं भमेय पत्तो समिदी भासेण मोणेण ॥२१॥
द्वितीयं चोक्त लिङ्गम् उत्कृष्टम् अपर श्रावकाणां च । भिक्षा भ्रमति पात्रः समिति भाषण मौनेन ।
अर्थ-और दूसरा उत्कृष्ट लिङ्ग अपर श्रावकों अर्थात् घर में न रहने वाले श्रावकों का है जो कि घूम कर भिक्षा द्वारा पात्र में वा हस्त में भोजन करते हैं और भाषा समिति सहित और मौन व्रत सहित प्रवर्तते हैं।
भावार्थ-मुनियों से नीचा दर्जा ग्यारहवीं प्रतिमा धारी श्रावक का है। लिंगं इच्छीण हवदि भुंनइ पिंडं सुएय कालम्मि । अज्जियवि एकवच्छां वच्छा वरणेण भुजेइ ॥२२॥ लिङ्ग स्त्रीणां भवति भुङ्क्ते पिण्ड सुएक काले ।
आर्यिकापि एक वस्त्रा वस्त्रावरणेन भुङ्क्ते ॥ अर्थ-तीसरा लिङ्ग स्त्रियों का अर्थात् आर्यकाओं का है जो कि दिन में एक समय भोजन करती हैं। ये आर्यिका एक वस्त्र सहित होती हैं और वस्त्र पहने हुवे ही भोजन करती हैं । ___ भावार्थ-भोजन करते समय भी नग्न नहीं होती हैं । स्त्री को कभी भी नग्न दिगम्बर लङ्ग धारण करना योग्य नहीं है।
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