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( १४ )
सूत्रार्थपद विनष्टो मिथ्या दृष्टिः ज्ञातयः । खेव न कर्तव्यं पाणिपात्रं सचलेस्यं ॥
अर्थ- जो कोई सूत्र के अर्थ और पद से विनष्ट हैं अर्थात उसके विपरीत प्रवर्तते हैं उनको मिथ्या दृष्टि जानना चाहिये, इस कारण वस्त्रधारी मुनि को कौतुक अर्थात हंसी मखौल से भी पाणि पात्र अर्थात् दिगम्बर मुनि के समान हाथ में अहार न देना चाहिये ।
हरि हर तुल्यो विणरो सग्गं गच्छेई एइ भव कोडी | तहविण पावर सिद्धिं संसारत्थोपुणां भणिदो ॥ ८ ॥
हरि हर तुल्योपिनरः स्वर्गं गच्छति एत्य भव कोटीः । तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः ॥ अर्थ- - हरि (नारायण) हर (रुद्र) के समान पराक्रम वाला भी पुरुष स्वर्ग को प्राप्त हो जाय तो भी तहां ते चय कर कड़ोरों भव लेकर संसार में ही रुलता है वह सिद्धि को नहीं पाता है ऐसा जिन शाशन में कहा है ।
भावार्थ - जिनेन्द्र भाषित सूत्र के अर्थ के जाने बिना चाहे कोई भी हो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सक्ता है ।
कि सींह चरियं वहुपरि यम्मोय ग्ररुयर भाराय । जोविहरइ सछदं पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ॥ ९ ॥
उत्कृष्टसिंह चरित्र: बहुरि परि कर्म्मा च गुरुतर मारश्च । यो विहरति स्वछन्दं पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम् ॥
अर्थ- -जो उत्कृष्ट सिंह के समान निर्भय होकर चारित्र पालता है, बहुत प्रकार तपश्चरण करता है और बड़े पदस्थ को धारण किये हुवे है अर्थात् जिसकी बहुत मान्यता होती है परन्तु जिन सूत्र की आज्ञा न मान कर स्वच्छन्द प्रवर्त्तता है वह पापों को और मिथ्यात्व को ही प्राप्त करता है ।
निश्चेल पाणिपत्तं उवह परम जिण वरिंदेहिं | एकोविमोक्ख मग्गो से साय अमग्गया सर्व्वे ॥ १० ॥
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