Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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शंका-समाधान
(३३) समाधान-सुझाया गया अर्थ भी माना जा सकता है, पर किया गया अर्थ गलत नहीं है, क्योंकि, घरोंके समुदायको ग्राम कहते हैं । समालोचकके कथनानुसार 'ग्रामके आकारवाले अर्थात् गांवके समान' ऐसा भी 'गामागार' पदका अर्थ मान लिया जाय तो भी उन्हींके द्वारा उठाई गई शंका तो ज्यों की त्यों ही खड़ी रहती है, क्योंकि, ग्रामके आकारवालोंको ग्राम कहनेमें कोई असंगति नहीं है। इसलिए इस सुझाए गए अर्थमें कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती।
पुस्तक ४, पृ. १८० ७ शंका--पृ. १८० में मूलमें एक पंक्तिमें 'व' और 'ण' ये दो शब्द जोड़े गये हैं। किन्तु ऐसा मालूम होता है कि घणरज्जु' में जो 'घण' शब्द है वह अधिक है और लेख - कोंकी करामातसे 'व ण' का 'घण' हो गया है ? (जैनसन्देश ता. २३-४-४२)
___ समाधान—प्रस्तुत पाठके संशोधन करते समय हमें उपलब्ध पाठमें अर्थकी दृष्टिसे 'व ण' पाठका स्खलन प्रतीत हुआ। अतएव हमने उपलब्ध पाठकी रक्षा करते हुए हमारे नियमानुसार 'व' और 'ण' को यथास्थान कोष्ठकके अन्दर रख दिया । शंकाकारकी दृष्टि इसी संशोधनके आधारसे उक्त पाठपर अटकी और उन्होंने 'व ण' पाठकी वहां आवश्यकता अनुभव की। इससे हमारी कल्पनाकी पूरी पुष्टि होगई। अब यदि ‘व ण' पाठ की पूर्ति उपलब्ध पाठके 'घण' को 'वण' बनाकर कर ली जाय तो भी अर्थका निर्वाह हो जाता है और किये गये अर्थमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । बात इतनी है कि ऐसा पाठ उपलब्ध प्रतियोंमें नहीं मिलता और न मूडबिद्रीसे कोई सुधार प्राप्त हुआ।
पुस्तक ४, पृ. २४० .. ८ शंका-पृ. २४० में ५७ वे सूत्रके अर्थमें एकेन्द्रियपर्याप्त एकेन्द्रियअपर्याप्त भेद गलत किये हैं, ये नहीं होना चाहिए, क्योंकि, इस सूत्रकी व्याख्यामें इनका उल्लेख नहीं है ?
(जैनसन्देश, ता. ३०-४-४२) समाधान-यद्यपि यहां व्याख्यामें उक्त भेदोंका कोई उल्लेख नहीं है, तथापि द्रव्यप्रमाणानुगम (भाग ३, पृ. ३०५) में इन्हीं शब्दोंसे रचित सूत्र नं. ७४ की टीकामें धवलाकारने उन भेदोंका स्पष्ट उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है- “एइंदिया बादरेइंदिया सुहुमेहंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता च एदे णव वि रासीओ......"। धवलाकारके इसी स्पष्टीकरणको ध्यानमें रखकर प्रस्तुत स्थल पर भी नौ भेद गिनाये गये हैं। तथा उन भेदोंके यहां ग्रहण करने पर कोई दोष भी नहीं दिखता । अतएव जो अर्थ किया गया है वह सप्रमाण और शुद्ध है।
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