Book Title: Shatkhandagama Pustak 05
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ६, ३०.] अंतराणुगमे णेरइय-अंतरपरूवणं
[२७ पढमादि जाव सत्तमीए पुढवीए णेरइएस मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २८ ॥
कुदो ? मिच्छादिष्टि-असंजदसम्मादिद्विविरहिदसत्तमपुढवीणरइयाणं सव्वकालमणुवलंभा ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥२९॥
कुदो ? मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी अण्णगुणं णेदूण सव्वजहण्णेण अंतोमुहुत्तकालेण पुणो तं चेव गुणं पडिवज्जाविदे अंतोमुहुत्तमेत्ततरुवलंभा ।
उक्कस्सेण सागरोवमं तिणि सत्त दस सत्तारस वावीस तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ३०॥
___ एत्थ तिण्णि-आदीसु सागरोवमसहो पादेक्कं संबंधणिज्जो । 'जहा उद्देसो तहा णिद्देसो' त्ति णायादो पढमीए पुढवीए देसूणमेगं सागरोवमं, विदियाए देसूणतिण्णि सागरोवमाणि, तदियाए देसूणसत्तसागरोवमाणि, चउत्थीए देसूणदससागरोवमाणि,
प्रथम पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में मिथ्यााष्ट और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २८ ॥
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे रहित सातों पृथिवियों में नारकियोंका सर्वकाल अभाव है।
उक्त दोनों गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है॥२९॥
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इन दोनोंको ही अन्य गुणस्थानमें ले जाकर सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त कालसे पुनः उसी गुणस्थानमें पहुंचाने पर अन्तर्मुहूर्त मात्र कालका अन्तर पाया जाता है।
उक्त दोनों गुणस्थानोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर देशोन एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम काल है ॥३०॥
यहां पर तीन आदि संख्याओंमें सागरोपम शब्द प्रत्येक पर सम्बन्धित करना चाहिए । जैसा उद्देश होता है, वैसा निर्देश होता है, इस न्यायसे प्रथम पृथिवीमें देशोन एक सागरोपम, द्वितीय पृथिवीमें देशोन तीन सागरोपम, तीसरी पृथिवीमें देशोन सात सागरोपम, चौथीमें देशोन दश सागरोपम, पाचवीं में देशोन सत्तरह सागरोपम, छठीमें
१ उत्कर्षेण एक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८.
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